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________________ तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक-११९ सत्यं न सुगतस्य वाचो विवक्षापूर्विकास्तत्सन्निधानमात्रात् कुट्यादिभ्योऽपि यथाप्रतिपत्तुरभिप्रायं तदुद्भूतेर्शितारत्नोपमत्वात्सुगतस्य। तदुक्तं / "चिंतारत्नोपमानो जगति विजयते विश्वरूपोऽप्यरूपः" इति केचित् / ते कथमीश्वरस्यापि सन्निधानाजगदुद्भवतीति प्रतिषेधुं समर्थाः, सुगतेश्वरयोरनुपकारकत्वादिना सर्वथा विशेषाभावात् / तथाहि किमेवमीश्वरस्यापि सांनिध्याजगदुद्भवत् / निषिध्यते तदा चैव प्राणिनां भोगभूतये // 13 // सर्वथानुपकारित्वान्नित्यस्येशस्य तन्न चेत् / सुगतस्योपकारित्वं देशनासु किमस्ति ते॥१४॥ तद्भावभावितामात्रात् तस्य ता इति चेन्मतम्। पिशानादेस्तथैवैताः किं न स्युरविशेषतः॥९५।। - सुगत के वचन इच्छापूर्वक नहीं होते हैं, यह कथन तो सत्य है। परन्तु उस सुगत के सान्निध्य मात्र से शिष्यजनों के अभिप्राय के अनुसार भित्ति आदि से भी वचन निकल जाते हैं। क्योंकि सुगत भगवान चिन्तामणि रत्न के समान है। सो ही कहा है- “चिन्तामणि रत्न के समान वह सुगत जगत में जयवन्त रहे जो विश्वरूप होकर भी स्वयं रूपरहित है" वह स्वयं इच्छारहित है परन्तु सर्व संसारी प्राणियों को इच्छानुसार फल देने वाला है। जैसे स्वयं इच्छारहित चिन्तामणि चिंतित फल को देने वाली है, ऐसा कोई (बौद्ध) कहते हैं। . जैनाचार्य कहते हैं कि इस प्रकार कहने वाले बौद्ध "ईश्वर के सान्निध्यमात्र से जगत् उत्पन्न हो जाता है" इस प्रकार के नैयायिक के सिद्धान्त का खण्डन करने में कैसे समर्थ हो सकते हैं? क्योंकि जैसे सुगत के सानिध्य मात्र से भित्ति से भी वचन निकल जाते हैं, उसी प्रकार ईश्वर के सान्निध्य से जगत् उत्पन्न हो जाता है। जैसे सुगत का जगत् के प्राणियों के साथ उपकृत-उपकारक भाव नहीं है, उसी प्रकार कूटस्थ नित्य ईश्वर का जगत् के साथ कोई उपकारक और उपकार्य भाव नहीं है। अतः सुगत के सानिध्य से वचन की प्रवृत्ति होना और ईश्वर के सानिध्य से जगत् का उत्पन्न होना-इन दोनों में कोई अन्तर नहीं है। अर्थात् इन दोनों में विशेषता का अभाव है। तथाहि- जिस प्रकार सुगत के सानिध्य से वचन उत्पन्न होते हैं, उसी प्रकार ईश्वर के सान्निध्य से जगत् उत्पन्न होता है। बौद्धों के द्वारा इसका निषेध क्यों किया जाता है। तथा प्राणियों के द्वारा कृत पुण्य-पाप का फल देने के लिए उस समय ईश्वर उत्पन्न होता है और ईश्वर के सान्निध्य का निमित्त पाकर जगत् उत्पन्न होता है, इसका निषेध क्यों किया जाता है।।९३ // यदि कहो कि- सर्वथा अनुपकारी होने से कूटस्थ नित्य ईश्वर के सान्निध्य से जगत् का प्रादुर्भाव नहीं हो सकता है, तो क्षणवर्ती सुगत की देशना में उपकारीपना कैसे हो सकता है। जैसे नित्य ईश्वर जगत् का कर्ता सिद्ध नहीं होता है, वैसे क्षणिकवर्ती सुगत भी मोक्षमार्ग का उपदेष्टा नहीं हो सकता है / / 94 // सुगत के होने पर मोक्षमार्ग की देशना होती है, इस अकेले भावभाविमात्र से सुगत के मोक्षमार्ग की देशना स्वीकार करते हो तो उस भाव मात्र-पिशाच आदि की मौजूदगी से देशना स्वीकार क्यों नहीं की जाती है। क्योंकि भाव हेतु दोनों में समान है, कोई विशेषता नहीं है।।९५॥
SR No.004284
Book TitleTattvarthashloakvartikalankar Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSuparshvamati Mataji
PublisherSuparshvamati Mataji
Publication Year2007
Total Pages450
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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