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________________ तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक - 118 न सुषुप्तविवक्षापूर्वको दृष्ट इति तदगमक एव / सन्निवेशादिवजगत्कृतकत्वसाधने यादृशामभिनवकूपादीनां सन्निवेशादि-धीमत्कारणकं दृष्टं तादृशामदृष्टधीमत्कारणानामपि जीर्णकूपादीनां तगमकं नान्यादृशानां भूधरादीनामिति ब्रुवाणो यादृशां जाग्रंदादीनां विवक्षापूर्वकं वचनादि दृष्टं तादृशामेव देशांतरादिवर्तिनां तत्तद्रमकं नान्यादृशां सुषुप्तादीनामिति कथं न प्रतिपद्यते। तथा प्रतिपत्तौ च न सुगतस्य विवक्षापूर्विका वाग्वृत्तिः साक्षात्परंपरया वा शुद्धस्य विवक्षापायादन्यथातिप्रसंगात्। सान्निध्यमात्रतस्तस्य चिंतारत्नोपमस्य चेत् / कुट्यादिभ्योपि वाचः स्युर्विनेयजनसंमताः // 12 // अथवा- यदि इस प्रकार साध्य के साथ अविनाभाव रहित हेतु भी साध्य को सिद्ध करेगा-तब तो नैयायिकों के द्वारा ईश्वर को जगत् का कर्ता सिद्ध करने के लिए दिये गये विशिष्ट सन्निवेश, कार्यत्व और अचेतनोपादानत्व हेतु भी समीचीन हो जायेंगे। नैयायिक कहते हैं कि जैसे नूतन कुए, घर आदि को किसी बुद्धिमान के द्वारा निर्मित देखकर पुराने कूप आदि में भी अनुमान लगाया जाता है कि यह भी किसी बुद्धिमान के द्वारा निर्मित है, उसी प्रकार पर्वत, सूर्य, भूमि आदि सभी दृष्टिगोचर होने वाले पदार्थों का रचयिता ईश्वर है। क्योंकि पृथ्वी आदि कार्य हैं और इनके उपादान कारण अचेतन परमाणु हैं। वे परमाणु किसी समीचीन प्रयोक्ता के बिना समुचित कार्य नहीं कर सकते और शरीर आदि में चेतन के द्वारा की गई विलक्षण रचना देखी जाती है। इस प्रकार नैयायिक के द्वारा प्रयुक्त तीन हेतुओं को बौद्ध गमक नहीं मानते हैं, प्रत्युत् जगत के कर्तापन का खण्डन करते हैं। जिस प्रकार नवीन कूप आदि का सन्निवेश किसी बुद्धिमान के द्वारा कृत देखा जाता है, उसी प्रकार अदृष्ट बुद्धिमान कर्ता वाले जीर्ण कूपादिक की रचनाविशेष बुद्धिमान कर्ता की सिद्धि करा देती है। किन्तु जीर्ण कूपादिक से विलक्षण.पर्वत आदि में कर्ता का ज्ञान नहीं करा सकते। इस प्रकार कहने वाले बौद्ध "जिस प्रकार जाग्रत अवस्था में मनुष्यादिक के विवक्षापूर्वक वचन देखे जाते हैं, उसी प्रकार देशान्तर और कालान्तर स्थायी मनुष्य आदि में होने वाले वचनों की प्रवृत्ति इच्छापूर्वक हो सकती है, इसका यह हेतु गमक हो सकता है। परन्तु इनसे सर्वथा भिन्न सुप्त आदि मनुष्यों के वचन विवक्षापूर्वक होते हैं, ऐसा सिद्ध नहीं कर सकते हैं। जिस प्रकार सुप्त पुरुष के वचन इच्छारहित होते हैं ऐसा ज्ञान हो जाने पर सुगत की साक्षात् या परम्परा से इच्छापूर्वक वचनप्रवृत्ति नहीं होती है, यह स्वीकार करना चाहिए। क्योंकि शुद्ध बुद्ध के इच्छा का अभाव है। अन्यथा (बुद्ध के इच्छा का अभाव नहीं मानने पर) अतिप्रसंग दोष आता है। अर्थात् मुक्त जीव के और आकाश के भी इच्छा उत्पन्न होने का प्रसंग आयेगा। सुगत की वचन प्रवृत्ति शिष्य-सान्निध्य से नहीं होती बौद्ध का कथन है कि “सुगत के वचन इच्छापूर्वक नहीं हैं, अपितु चिन्तामणि रत्न के समान शिष्यों के सान्निध्य मात्र से बुद्ध के वचनों की प्रवृत्ति स्वयमेव हो जाती है। अर्थात्- जिस प्रकार चिन्तामणि के सान्निध्य से चिंतित वस्तु की प्राप्ति स्वयमेव हो जाती है, चिंतामणि इच्छापूर्वक वस्तु प्रदान नहीं करती है; उसी प्रकार सुगत की इच्छा नहीं होते हुए भी सान्निध्य से स्वयमेव वचनों की प्रवृत्ति हो जाती है। इस पर जैनाचार्य कहते हैं कि ऐसा मानने पर तो सुगत के सान्निध्य से भित्ति, झोंपड़ी आदि से भी विनययुक्त शिष्यजनों के सम्मत (उपयोगी) वचन निकलने चाहिए // 12 //
SR No.004284
Book TitleTattvarthashloakvartikalankar Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSuparshvamati Mataji
PublisherSuparshvamati Mataji
Publication Year2007
Total Pages450
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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