________________ तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक-११५ पूर्वकालविवक्षातो नष्टाया अपि तत्त्वतः। सुगतस्य प्रवर्तते वाच इत्यपरे विदुः // 10 // यथा जाग्रद्विज्ञानानष्टादपि प्रबुद्धविज्ञानं दृष्टं तथा नष्टायाः पूर्वविवक्षायाः सुगतस्य वाचोऽपि प्रवर्तमाना: संभाव्या इति चेत् तेषां संवासनं नष्टं कल्पनाजालमर्थकृत् / कथं न युक्तिमध्यास्ते शुद्धस्यातिप्रसंगतः // 11 // यत्सवासनं नष्टं तन्न कार्यकारि यथात्मीयाभिनिवेशलक्षणं कल्पनाजालं / सुगतस्य सवासनं नष्टं च विवक्षाख्याकल्पनाजालमिति न पूर्वविवक्षातोऽस्य वाग्वृत्तियुक्तिमधिवसति / जाग्रद्विज्ञानेन नष्ट विवक्षा कार्यकारी नहीं होती - सौत्रान्तिक बौद्ध कहते हैं कि वस्तुत: नष्ट हुई भी पूर्वकालीन बोलने की इच्छा से सुगत के वचन की प्रवृत्ति होती है॥१०॥ . जिस प्रकार नष्ट हुए भी जाग्रद् विज्ञान (जाग्रत अवस्था के ज्ञान) से प्रबुद्ध ज्ञान देखा जाता है अर्थात् जैसे जाग्रत अवस्था का ज्ञान सुप्त अवस्था में नष्ट हो जाता है परन्तु वह नष्ट हुआ भी ज्ञान पुनः प्रबुद्ध अवस्था में देखा जाता है, उसी प्रकार नष्ट हुई भी पूर्वकालीन बोलने की इच्छा सुगत के वचन की प्रवर्त्तमानक सम्भव है। इस प्रकार कहने वाले बौद्धों के प्रति जैनाचार्य कहते हैं कि उन बौद्धों के वासना सहित नष्ट हुआ विवक्षा (बोलने की इच्छा) रूप कल्पना का समूह अर्थ को करने वाला कैसे हो सकता है? अर्थात् वह नष्ट हुई विवक्षा किसी भी कार्य को करने वाली नहीं है। विवक्षा नामक कल्पनाओं के संस्कार. सहित नष्ट हो जाने पर वह पूर्वकालीन विवक्षा सुगत के वचन की प्रवृत्ति में युक्त कैसे हो सकती है। यदि कल्पनारहित शुद्ध पदार्थ के भी वचनों की प्रवृत्ति मानेंगे तो शुद्ध आकाश, परमाणु आदि के भी वचन प्रवृत्ति का प्रसंग आयेगा / / 91 // तथा, जो कल्पनाजाल वासना सहित नष्ट हो गया है वह कुछ भी कार्यकारी नहीं होता है। जैसे धन, पुत्र, कलत्र आदि अनात्मीय पदार्थों में 'ये मेरे हैं' इस प्रकार के मिथ्याभिनिवेश (अतत्त्व श्रद्धान) लक्षण कल्पनाजाल के वासना सहित नष्ट हो जाने पर सुगत के जीवनमुक्त अवस्था में वह मिथ्याभिनिवेश कल्पनाजाल कुछ नहीं करता है, पुनः उत्पन्न नहीं होता है ; उसी प्रकार वासनासहित नष्ट हुआ विवक्षा (बोलने की इच्छा) नामक कल्पनाजाल भी पूर्व विवक्षा से सुगत के वाक् (वचन) प्रवृत्ति की युक्ति को सिद्ध नहीं कर सकता है। अर्थात् पूर्वकाल की विवक्षा से बुद्ध वचन में प्रवृत्ति नहीं कर सकता। (बौद्ध कहते हैं कि) यदि नष्ट हुआ ज्ञान कार्यकारी नहीं है तो फिर सुप्त अवस्था में नष्ट हुआ ज्ञान जाग्रत अवस्था में कार्यकारी कैसे है? अतः यह हेतु जाग्रत अवस्था के ज्ञान के साथ व्यभिचारी है (आचार्य कहते हैं-) ऐसा भी कहना उचित नहीं है- क्योंकि हेतु का विशेषण वासना सहितपना दिया है। स्वप्न अवस्था में ज्ञान वासनासहित नष्ट नहीं होता है, अतः जाग्रत अवस्था में पुन: वासना के प्रगट हो जाने पर वह पूर्वज्ञान अपने कार्य को करने में समर्थ हो जाता है। अन्यथा यदि वासनासहित नष्ट हुए ज्ञान को वासना के प्रकट हुए बिना भी कार्य करने वाला मानेंगे तो अतिप्रसंग दोष आयेगा। अर्थात् पूर्वकालीन मिथ्याभिनिवेशलक्षण जो कल्पनाजाल है (पुत्र-पौत्रादिक मेरे हैं, यह मिथ्याभिनिवेश है) वह भी मुक्त अवस्था में कार्यकारी होगा।