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________________ तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक - 114 संतानस्याप्यवस्तुत्वादन्यथात्मा तथोच्यताम्। कथंचिद्रव्यतादात्म्याद्विनाशस्तस्य संभवात् // 89 // स्वयमपरामृष्टभेदाः पूर्वोत्तरक्षणा: संतान इति चेत् तर्हि तस्यावस्तुत्वादर्थक्रियाक्षतिः संतानिभ्यस्तत्त्वातत्त्वाभ्यामवाच्यत्वस्यावस्तुत्वेन व्यवस्थापनात् / संतानस्य वस्तुत्वे वा सिद्धं परमतमात्मनस्तथाभिधानात् / कथंचिद्रव्यतादात्म्येनैव पूर्वोत्तरक्षणानां संतानत्वासिद्धेः प्रत्यासत्त्यन्तरस्य व्यभिचारात्, तात्त्विकतानभ्युपगमाच्च। . सन्तान वस्तुभूत है, अवस्तु नहीं सन्तान के अवस्तु होने से (अनेक क्षणों में रहने वाले) पदार्थों का कालिक प्रत्यासत्ति से समूह नहीं बन सकता। अन्यथा (यदि संतान को क्षणध्वंसी न मानकर कालान्तर स्थायी मानेंगे तो) संतान शब्द से आत्म द्रव्य का ही कथन सिद्ध होता है। संतान आत्मा ही है, ऐसा कहना है और आत्मा का पूर्वापर क्षणों के साथ द्रव्य रूप से कथंचित् तादात्म्य सम्बन्ध है। क्योंकि तादात्म्य सम्बन्ध के बिना संतान का विनाश संभव है। अथवा तादात्म्य सम्बन्ध के बिना संतान-चित् (आत्मा) की है ऐसा कहना संभव नहीं। (द्रव्य में गुण आदि का तादात्म्य सम्बन्ध ही सिद्ध है। तादात्म्य सम्बन्ध से ही पूर्वापर परिणामों का अन्वय सिद्ध हो सकता है।)।८९ / / बौद्ध कहता है कि प्रत्येक क्षणवर्ती परिणामों में परस्पर अत्यन्त भेद है, परन्तु स्थूल दृष्टि से स्वयं पूर्वापर भेदों का स्पर्श न करके क्षणिक परिणामों के समूह को संतान कह देते हैं। इस कथन का खण्डन करते हुए जैनाचार्य कहते हैं कि ऐसा माननेपर तो चित्त संतान के अवस्तु हो जाने से युगपत् अथवा क्रम से होने वाली अर्थक्रिया की क्षति (अभाव) होगी। अर्थात् जब संतान वस्तुभूत पदार्थ ही नहीं है तो उसमें अर्थक्रिया (उत्पाद, व्यय, ध्रौव्यपना) कैसे हो सकती है। तथा सन्तानियों से भिन्न या अभिन्न होकर तद् या अतद्रूप से जिसका कथन नहीं किया जा सकता है अर्थात् 'यह इससे भिन्न है- या अभिन्न है, तद्प है वा अतद्रूप है' इस प्रकार जिसका कथन नहीं कर सकते हैं- उस अवाच्य को अवस्तु माना है। अर्थात् तुम्हारे मत में उसे अवस्तु रूप से व्यवस्थापित किया है। सन्तान को वस्तु स्वीकार कर लेने पर जैनदर्शन की सिद्धि होती है। क्योंकि जैनदर्शन में पूर्वापर परिणामों में अन्वय रूप से द्रव्य के रहने को ही संतान माना है और वह वस्तुभूत पदार्थ है। क्योंकि कथंचित् द्रव्य तादात्म्य सम्बन्ध से अन्वित होने पर भी पूर्व-उत्तर क्षणों के संतानत्व की सिद्धि होती है। द्रव्यप्रत्यासत्ति को छोड़ कर अन्य काल प्रत्यासत्ति, क्षेत्र प्रत्यासत्ति, भाव प्रत्यासत्ति आदि के मानने पर व्यभिचार आता है। क्योंकि क्षेत्रप्रत्यासत्ति (एक क्षेत्र में पुद्गलादि छहों द्रव्य रहते हैं, उनमें संतानत्व नहीं है); कालप्रत्यासत्ति (एक काल में अनेक द्रव्यों का भिन्न-भिन्न परिणमन होता है। उनमें एकसंतानत्व नहीं है), भावप्रत्यासत्ति (सर्व सिद्धों का ज्ञान समान है, यह भावप्रत्यासत्ति है परन्तु उनमें एकसंतानत्व नहीं है), में एकसंतानत्व घटित नहीं होता है। अतः द्रव्य प्रत्यासत्ति से अतिरिक्त क्षेत्र, काल, भाव प्रत्यासत्ति में संतानत्व में व्यभिचार आता है। तथा क्षेत्र, काल और भाव प्रत्यासत्ति को वास्तविक स्वीकार नहीं किया गया है। इसलिए कथंचित् द्रव्यप्रत्यासत्ति से तादात्म्य सम्बन्ध रखने वाले पूर्वोत्तर क्षणों के सन्तान की सिद्धि है।
SR No.004284
Book TitleTattvarthashloakvartikalankar Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSuparshvamati Mataji
PublisherSuparshvamati Mataji
Publication Year2007
Total Pages450
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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