________________ तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक - 105 भावनाप्रकर्षपर्यंतस्तत्सिद्ध्युपाय इति चेत् / न। भावनाया विकल्पात्मकत्वेनातत्त्वविषयायाः प्रकर्षपर्यंत प्राप्तायास्तत्त्वज्ञानवैतृष्ण्यस्वभावोदयविरोधात् / न हि सा श्रुतमयी तत्त्वविषया श्रुतस्य प्रमाणत्वानुषंगात् / तत्त्वविवक्षायां प्रमाणं सेति चेत् तर्हि चिंतामयी स्यात् / तथा च न श्रुतमयी भावना नाम.। परार्थानुमानरूपा श्रुतमयी, स्वार्थानुमानात्मिका चिंतामयीति विभागोऽपि न श्रेयान् / सर्वथा भावनायास्तत्त्वविषयत्वायोगात् / तत्त्वप्रापकत्वाद्वस्तुविषयत्वमिति चेत्, कथमवस्त्वालंबना सा वस्तुनः प्रापिका? तदध्यवसायात्तत्र प्रवर्तकत्वादिति चेत् / किं पुनरध्यवसायो वस्तु विषयीकुरुते यतोऽस्य तत्र प्रवर्तकत्वं? 'सम्पूर्ण पदार्थ क्षणिक हैं', इस प्रकार की भावना की प्रकर्षता ही सुगत पद प्राप्त करने का उपाय है। (वा सुगत की सिद्धि का उपाय है) ऐसा कहना उचित नहीं है। क्योंकि बौद्धमत में श्रुतमयी और चिन्तामयी भावनाओं को विकल्पज्ञानात्मक माना है और विकल्पज्ञान वस्तु का स्पर्श करने वाला न होने से असत्य है। जब विकल्पात्मक भावनायें वस्तु स्वरूप तत्त्वों को विषय नहीं करती हैं, तब असत्य भावनाओं के अन्तिम उत्कर्ष को प्राप्त हो जाने पर भी समीचीन तत्त्वों का ज्ञान और तृष्णा का अभाव रूप वैराग्य, इन स्वभावों की उत्पत्ति होने का विरोध है। अर्थात् मिथ्याभावनाओं के उत्कर्ष से वीतराग विज्ञान उत्पन्न नहीं हो सकता। (बौद्धों द्वारा मान्य) श्रुतमयी भावना वास्तविक तत्त्वों को विषय करने वाली नहीं है, क्योंकि श्रुतमयी भावना को तत्त्व का विषय करने वाली मानोगे तो श्रुतज्ञान (शास्त्र ज्ञान) को तीसरा प्रमाण मानने का प्रसंग आयेगा, जबकि बौद्ध * मत में प्रत्यक्ष और अनुमान ये दो ही प्रमाण माने गये हैं। यदि निर्विकल्प ज्ञान के विषयभूत वास्तविक तत्त्वों को शास्त्र के द्वारा कहने की इच्छा होने पर श्रुतमयी भावना को भी परार्थानुमान प्रमाण मानते हैं तब तो वह परार्थानुमान रूप श्रुतमयी भावना नहीं रही अपितु वह चिन्तामयी भावना हो गयी। . ‘परार्थानुमान रूपा श्रुतमयी भावना है और स्वार्थानुमान रूपा चिन्तामयी भावना है' ऐसा विभाग करना भी श्रेयस्कर (ठीक) नहीं है। सर्वथा अवस्तु को विषय करने वाली भावनाओं के तत्त्व को विषय करने की अयोग्यता है। अर्थात् अतत्त्व को विषय करने वाली भावनाएँ तत्त्व को विषय करने वाली नहीं हो सकतीं। शंका - तत्त्व की प्रापक (अर्थ की प्राप्ति में कारण) होने से भावना वास्तविक वस्तु को विषय करती है, ऐसा कहा जाता है। अर्थात् पूर्व में वस्तुचिंतन से अर्थ की ज्ञप्ति होती है, पुनः अर्थ में प्रवृत्ति होती है, पश्चात् अर्थ की प्राप्ति होती है। प्राप्ति काल तक क्षणिक निर्विकल्प ज्ञान तो रहता नहीं है, इच्छाओं की संतान चलती है अतः चिन्ता वस्तु के विषय की प्राप्ति में कारण है। ____उत्तर - अपरमार्थ भूत अवस्तु को विषय करने वाली मिथ्यारूप भावना वस्तु की प्राप्ति का आलम्बन (कारण) कैसे हो सकती है? . बौद्ध का कथन- भावना रूप ज्ञान परार्थानुमान रूप शास्त्र के विषय का निश्चय कराने वाला होने से वस्तु का प्रापक है। (अर्थात् वास्तवज्ञान के कराने में कारण है।) जैनाचार्य का प्रश्न- क्या वह निश्चय रूप मिथ्याज्ञान (बौद्धों ने निश्चयात्मक ज्ञान को मिथ्या माना है) वास्तविक वस्तु का निश्चय कराता है जिससे इस निश्चयात्मक ज्ञान की वास्तव ज्ञान में प्रवृत्ति हो सके?