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________________ तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक-१०३ तदनवबोधविजृम्भितं / स्वाश्रयद्रव्याद्रव्यांतरं नेतुमशक्यत्वस्याशक्यविवेचनत्वस्य कथनात् / न च तदसिद्धमनैकांतिकत्वं साध्यधर्मिणि सद्भावाद्विपक्षाद्व्यावृत्तेश। तत्र गुणादीनां कथंचिद्रव्यतादात्म्यपरिणामेनावभासनमसिद्धं, नापि द्रव्यपरिणामत्वं, येन साध्यशून्यं साधनशून्यं वा निदर्शनमनुमन्यते / समवायो वार्थस्यैव पर्यायो न सिद्धयेत्, सिद्धेऽपि समवायस्य द्रव्यपरिणामत्वे नानात्वे च किं सिद्धमिति प्रदर्शयति; तदीश्वरस्य विज्ञानसमवायेन या ज्ञता। सा कथंचित्तदात्मत्वपरिणामेन नान्यथा॥७५ / / तथानेकांतवादस्य प्रसिद्धिः केन वार्यते। प्रमाणबाधनाद्भिन्नसमवायस्य तद्वतः / / 76 // तदेवं समवायस्य तद्वतो भिन्नस्य सर्वथा प्रत्यक्षादिबाधनात्तदबाधितद्रव्यपरिणामविशेषस्य समवायप्रसिद्धर्ज्ञानसमवायाद् ज्ञो महेश्वर इति कथंचित्तादात्म्यपरिणामादेवोक्तः स्यात् / स च मोक्षमार्गस्य प्रणेतेति भगवानहन्नेव नामांतरेण स्तूयमानः केनापि वारयितुमशक्यः / परस्तु कपिलादिवदज्ञो न तत्प्रणेता नाम। उत्तर - जैनाचार्य कहते हैं कि इस प्रकार का कथन करना अज्ञान का विलास है। स्याद्वाद सिद्धान्त में एक द्रव्य के गुणों को द्रव्य से पृथक् करके दूसरे द्रव्य में ले जाना शक्य नहीं है, उसको अशक्य विवेचन कहते हैं। अतः अशक्य विवेचन रूप हेतु का अपने साध्य धर्मी में सद्भाव होने से यह हेतु असिद्ध नहीं है और विपक्ष व्यावृत्ति होने से यह हेतु अनैकान्तिक भी नहीं है। इसलिए गुणादिकों का कथंचित् द्रव्य के साथ तादात्म्य परिणाम से अवभासमान होने से कथंचित गुण द्रव्य से अभिन्न हैं, यह असिद्ध नहीं है। और कथंचित् अभिन्न हेतु के द्वारा साध्य द्रव्य का परिणामी (पर्याय) पना भी असिद्ध नहीं है। जिससे साध्य शून्य दृष्टान्त माना जाता हो। समवाय अर्थ की पर्याय है, यह सिद्ध नहीं होता है- ऐसा नहीं है। समवाय अर्थ की पर्याय सिद्ध है। समवाय सम्बन्ध के द्रव्य की पर्याय और नानापना सिद्ध हो जाने पर भी इससे आपका क्या प्रयोजन सिद्ध होता है, ऐसा वैशेषिक के द्वारा पूछने पर आचार्य अपना प्रयोजन दिखाते हैं ___ वह ईश्वर की सर्वज्ञता कथंचित् तादात्म्य परिणाम वाले विज्ञान समवाय से सिद्ध हो सकती है। अन्यथा (ईश्वर से पृथक् ज्ञान का समवाय सम्बन्ध से ईश्वर के साथ सम्बन्ध होने से) ईश्वर की सर्वज्ञता सिद्ध नहीं हो सकती। इस प्रकार ज्ञान और आत्मा का तादात्म्य सम्बन्ध सिद्ध हो जाने पर अनेकान्तवाद की प्रसिद्धि को कौन रोक सकता है। (अनेकान्त का खण्डन कैसे हो सकता है।) अतः सर्वथा भिन्न समवाय सम्बन्ध से ज्ञान का आत्मा के साथ संयोग होना प्रमाण बाधित है।।७५-७६ // इस प्रकार सिद्ध हआ कि अपने समवायियों से सर्वथा भिन्न (कल्पित) समवाय के मानने में प्रत्यक्षादि प्रमाणों से बाधा आती है, और उस द्रव्य के तदात्मक विशेष परिणाम को स्वीकार करने से कोई बाधा नहीं आती है। अतः तादात्म्य सम्बन्ध रूप समवाय की सिद्धि होने से 'ज्ञान के समवाय से महेश्वर ज्ञाता होता है' इसका अभिप्राय यह है कि कथंचित् तादात्म्य परिणाम स्वरूप ज्ञान के संयोग से आत्मा ज्ञाता है, अन्यथा नहीं।
SR No.004284
Book TitleTattvarthashloakvartikalankar Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSuparshvamati Mataji
PublisherSuparshvamati Mataji
Publication Year2007
Total Pages450
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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