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________________ तत्त्वार्थश्लोकवार्त्तिक - 91 . संप्रज्ञातयोगकालेऽपि तादृशः पुंरूपस्याभावात्परमनिःश्रेयसप्रसक्तेः। तदा वैराग्यतत्त्वज्ञानाभिनिवेशात्मकप्रधानसंसर्गसद्भावानासंप्रज्ञातयोगोऽस्ति, यतः परममुक्तिरिति चेत्तर्हि रत्नत्रयाजीवन्मुक्तिरित्यायातः प्रतिज्ञाव्याघातः। परमतप्रवेशात् तत्त्वार्थश्रद्धानतत्त्वज्ञानवैराग्याणां रत्नत्रयत्वात्ततो जीवन्मुक्तेरार्हत्यरूपायाः परैरिष्टत्वात् / यदपि द्रष्टुरात्मनः स्वरूपेऽवस्थानं ध्यानं परममुक्तिनिबंधनं तदपि न रत्नत्रयात्मकतां व्यभिचरति, सम्यग्ज्ञानस्य पुंरूपत्वात्, तस्य तत्त्वार्थश्रद्धानसहचरितत्वात्, परमौदासीन्यस्य च परमचारित्रत्वात् / समाधान : जैनाचार्य कहते हैं कि कपिल का यह कथन प्रशंसनीय नहीं है। क्योंकि संप्रज्ञातयोग काल (सर्वज्ञ अवस्था के समय) में भी मिथ्याश्रद्धान और मिथ्याज्ञान सहित पुरुष का अभाव होने से परम निश्रेयस् (मोक्ष) का प्रसंग आयेगा। अर्थात् संप्रज्ञातयोग काल में भी आत्मा अपने स्वरूप में अवस्थित रहता है, क्योंकि कूटस्थ नित्यात्मा सदा से ही मिथ्यादर्शन और मिथ्याज्ञान से रहित है। यद्यपि प्रकृति के संसर्ग से आनुषंगिक मिथ्यादर्शन ज्ञान सहितपना आत्मा में था किन्तु सर्वज्ञता होने पर प्रकृति सम्बन्धी मिथ्यादर्शन मिथ्याज्ञान आत्मा में नहीं आ सकते हैं। अतः संप्रज्ञातयोग काल में ही पुरुष के मिथ्यादर्शनादि का अभाव हो जाने से उसी समय मोक्ष हो जाना चाहिए था। . (यहाँ कापिल कहते हैं कि) सर्वज्ञ के संप्रज्ञात समाधि के समय में वैराग्य, तत्त्वज्ञान और तत्त्वश्रद्धान स्वरूप प्रकृति के संसर्ग का सद्भाव हो रहा है। अतः उस समय (प्रकृति के उपयोग रहित अभिन्न ज्ञान, श्रद्धान, चारित्र स्वरूप) असंप्रज्ञात योग नहीं है- जिससे कि परम मोक्ष प्राप्त हो अर्थात् असंप्रज्ञात योग परंम मुक्ति का कारण है। जैनाचार्य कहते हैं कि इस प्रकार कपिल के मतानुसार सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्र स्वरूप रत्नत्रय से जीवनमुक्ति होती है, यह सिद्ध होता है और केवल तत्त्वज्ञान से ही मोक्ष होता है, इस सिद्धान्त का व्याघात होता है। और परमत (जैनमत) में प्रवेश हो जाता है. क्योंकि जैनों ने तत्त्वार्थ श्रद्धा, तत्त्वज्ञान और रागद्वेष के अभाव रूप वैराग्य को रत्नत्रय माना है और उस रत्नत्रय से आर्हन्त्य अवस्था प्राप्त होना स्याद्वादियों को इष्ट है। यद्यपि ज्ञाता द्रष्टा आत्मा का अपने स्वरूप में अवस्थानरूप ध्यान परम मुक्ति का कारण है, तथापि वह स्वरूपावस्थान रत्नत्रय स्वरूप का व्यभिचार नहीं करता है, अपितु अविनाभावी है। सूत्र में 'द्रष्टुः स्वरूपे अवस्थानं' ये तीन पद हैं। उसमें स्वरूप (आत्मा का स्वरूप ज्ञान-चैतन्य है। द्रष्टा कहने से सम्यग्दृष्टिपना है और अवस्थान स्थिरता कहने से आत्मा में स्थिति रूप चारित्र है। अर्थात् तत्त्वार्थ श्रद्धान के साथ रहने वाला सम्यग्ज्ञान आत्मा का अभिन्न स्वरूप है और उत्कृष्ट उदासीनता ही परम चारित्र है तथा मोक्ष अवस्था में तीनों की अभिन्न रूप अवस्था रहती है।
SR No.004284
Book TitleTattvarthashloakvartikalankar Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSuparshvamati Mataji
PublisherSuparshvamati Mataji
Publication Year2007
Total Pages450
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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