________________ तत्त्वार्थश्लोकवार्त्तिक - 90 मिथ्यार्थाभिनिवेशेन मिथ्याज्ञानेन वर्जितम्। यत्पुंरूपमुदासीनं तच्चेद्ध्यानं मतं तव // 12 // हंत रत्नत्रयं किं न ततः परमिहेष्यते। यतो न तन्निमित्तत्वं मुक्तेरास्थीयते त्वया // 63 / / ननु च मिथ्यार्थाभिनिवेशेन वर्जितं पुरुषस्य स्वरूपं न सम्यग्दर्शनं तस्य तत्त्वार्थश्रद्धानलक्षणत्वात्, नापि मिथ्याज्ञानेन वर्जितं तत्सम्यग्ज्ञानं तस्य स्वार्थावायलक्षणत्वात्, उदासीनं च न पुंरूपं सम्यक्चारित्रं तस्य गुप्तिसमितिव्रतभेदस्य बाह्याभ्यंतरक्रियाविशेषोपरमलक्षणत्वात् येन तथाभूतरत्नत्रयमेव मोक्षस्य कारणमस्माभिरास्थीयते। मिथ्याभिनिवेशमिथ्याज्ञानयोः प्रधानविवर्तितया समाधिविशेषकाले प्रधानसंसर्गाभावे पुरुषस्य तद्वर्जितत्वेपि स्वरूपमात्रावस्थानात् / तदुक्तं / “तदा द्रष्टुः स्वरूपेऽवस्थान" मिति कशित् / तदसत् / तुम्हारे (सांख्य) मत में मिथ्यार्थाभिनिवेश यानी मिथ्याश्रद्धान और मिथ्याज्ञान से रहित उपेक्षा-स्वरूप पुरुष की (आत्मा की) उदासीनता ही समाधि रूप ध्यान है। वह मोक्ष का कारण है। तब तो खेद के साथ कहना पड़ता है कि आप (सांख्य) रत्नत्रय को ही मोक्षमार्ग क्यों नहीं स्वीकार करते हो? जिससे कि आप को रत्नत्रय के निमित्त से मुक्ति की श्रद्धा स्वीकार न करनी पड़े। अर्थात् सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक् चारित्र . रूप रत्नत्रय ही मुक्ति का कारण है, ऐसा श्रद्धान करना चाहिए // 62-63 // शंका - जैनशास्त्रों में मिथ्यार्थाभिनिवेश रहित पुरुष का स्वरूप सम्यग्दर्शन नहीं है। क्योंकि सम्यग्दर्शन का लक्षण तत्त्वार्थ श्रद्धान है। मिथ्याज्ञान से रहित सम्यग्ज्ञान नहीं है अपितु अपने को और अर्थ को निश्चित कर लेने स्वरूप' लक्षण वाला सम्यग्ज्ञान है। उदासीनता रूप पुरुष का स्वरूप सम्यक्चारित्र नहीं है अपितु गुप्ति, समिति तथा महाव्रत भेद रूप और बाह्याभ्यन्तर विशेष रूप से उपरम (त्याग) को चारित्र का लक्षण माना है। जिससे कि इस प्रकार का रत्नत्रय ही मोक्ष का कारण हमारे द्वारा श्रद्धान किया जाता, अर्थात् स्याद्वाद में स्वीकृत सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्र जब ये तीनों आत्मा के स्वरूप ही नहीं हैं तो इन तीनों को ही मोक्षकारणपना हम कैसे मान सकते हैं। ये तो प्रकृति के भाव हैं या परिणाम हैं। अतः हमारे द्वारा स्वीकृत मिथ्यार्थाभिनिवेश का अभाव, मिथ्याज्ञान का अभाव और पुरुष की उदासीनता पुरुष का स्वरूप है, चैतन्य स्वरूप है। अत: जैनग्रन्थों में कथित 'रत्नत्रय' मोक्षमार्ग है हमारे द्वारा कैसे स्वीकार किया जा सकता है? कपिलशास्त्र में मिथ्यादर्शन और उसके पर्युदास निषेधात्मक सम्यग्दर्शन, ये दोनों ही भाव प्रकृति के माने हैं। तथा मिथ्याश्रद्धान और मिथ्याज्ञान भी प्रधान (प्रकृति) के परिणाम (पर्याय) हैं। असंप्रज्ञात नामक विशेष समाधि के समय प्रकृति के संसर्ग का अभाव होने पर पुरुष (आत्मा) उन मिथ्याश्रद्धान और मिथ्याज्ञान से रहित होने पर भी अपने स्वरूप में अवस्थित रहता है। अर्थात् सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्र रूप प्रकृति के परिणाम से रहित आत्मा मुक्त अवस्था में अपने स्वरूप में स्थित रहता है। हमारे ग्रन्थ में लिखा भी है कि 'मुक्तावस्था में द्रष्टा का अपने स्वरूप में अवस्थान हो जाता है। ऐसा कोई (कपिल मतानुयायी) कहता है।