________________ तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक-७१ नानुमानादलिंगत्वात्कार्थापत्त्युपमागतिः। सर्वस्यानन्यथाभावसादृश्यानुपपत्तितः // 17 // सर्वप्रमातृसंबंधि-प्रत्यक्षादिनिवारणात्। केवलागमगम्यं च कथं मीमांसकस्य तत् ? // 18 // कार्येऽर्थे चोदनाज्ञानं प्रमाणं यस्य संमतम्। तस्य स्वरूपसत्तायां तन्नैवातिप्रसंगतः // 19 // तज्ज्ञापकोपलंभस्याभावोऽभावप्रमाणतः। साध्यते चेन्न तस्यापि सर्वत्राप्यप्रवृत्तितः // 20 // गृहीत्वा वस्तुसद्भावं स्मृत्वा तत्प्रतियोगिनम्। मानसं नास्तिताज्ञानं येषामक्षानपेक्षया // 21 // ___ ज्ञापकानुपलंभन हेतु अनुमान के द्वारा भी गम्य नहीं है। क्योंकि उस हेतु को साध्य बनाकर जानने के लिए अविनाभाव रखने वाला कोई दूसरा हेतु नहीं है। जब ज्ञापकानुपलम्भन हेतु अनुमान और इन्द्रिय प्रत्यक्ष से ही नहीं जाना गया तो अर्थापत्ति और उपमान प्रमाण से कैसे जाना जा सकता है। तथा सम्पूर्ण जीवों के अन्यथा न होने वाले और सदृशता रखने वाले पदार्थों की सिद्धि नहीं है। अतः अतीन्द्रिय ज्ञापकानुपलंभ हेतु को जानने के लिए अर्थापत्ति और उपमान प्रमाण की प्रवृत्ति नहीं हो सकती है॥१७॥ 'ज्ञापकानुपलम्भन' हेतु के जानने में सम्पूर्ण प्रमाताओं के सम्बन्धी हो रहे प्रत्यक्ष, अनुमान, अर्थापत्ति और उपमान प्रमाणों की प्रवृत्ति का निवारण हो जाने से मीमांसकों के यहाँ केवल आगम से 'ज्ञापकानुपलम्भ' हेतु को जानना कैसे सिद्ध हो सकेगा॥१८॥ जिसके कार्य (कर्मकाण्ड के प्रतिपादन करने रूप) अर्थ में वेदवाक्य को ही प्रमाण माना हैउन मीमांसकों के स्वरूप की सत्ता रूप परब्रह्म को कहने वाले वेदवाक्यों को प्रमाण नहीं माना है। अतः अतिप्रसंग दोष आता है॥१९॥ यदि अभाव प्रमाण से सर्वज्ञ के ज्ञापक प्रमाणों के उपलंभ का अभाव सिद्ध किया जाता है तो ऐसा भी कहना उचित नहीं है। क्योंकि उस अभाव प्रमाण की भी सर्वत्र प्रवृत्ति नहीं होती है॥२०॥ - वस्तु के सद्भाव को ग्रहण करके (जान करके) और उसके प्रतियोगी का स्मरण करके तथा बहिरंग इन्द्रियों की अपेक्षा न करके केवल मानसिक इन्द्रियों के द्वारा नास्तिपने का ज्ञान होता है, वह अभाव ज्ञान है॥२१॥ 1. जिसके बिना जो न हो ऐसे अदृष्ट पदार्थ के जानने को अर्थापत्ति कहते हैं। 2. एक दूसरे के साथ तुलना करना उपमान ज्ञान है।