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________________ तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक - 68 स्थानत्रयाविसंवादि श्रुतज्ञानं हि वक्ष्यते। तेनाधिगम्यमानत्वं सिद्धं सर्वत्र वस्तुनि // 12 // ततः प्रकृतहेतोरव्यभिचारिता पक्षव्यापकता च सामान्यतो बोद्धव्या। यतश्चैवं सर्वज्ञसाधनमनवद्यम्। ततोऽसिद्धं परस्यात्र ज्ञापकानुपलंभनम्। नाभावसाधनायालं सर्वतत्त्वार्थवेदिनः // 13 // स्वयं सिद्धं हि किंचित्कस्यचित्साधकं नान्यथाऽतिप्रसंगात्। सिद्धमपि स्वसंबंधि यदीदं स्याव्यभिचारिपयोनिधेः। अंभ: कुंभादिसंख्यानैः सद्भिरज्ञायमानकैः // 14 // तथा- प्रत्यक्ष, अनुमान और स्वानुभव इन तीनों स्थानों (ज्ञान) में अविसंवादी को ही श्रुतज्ञान कहते हैं। जो अनुमान, प्रत्यक्ष और अनुभव प्रमाण से बाधित है वह श्रुतज्ञान वास्तविक नहीं है। उस श्रुतज्ञान के द्वारा गम्यमानत्व हेतु सम्पूर्ण वस्तुभूत पदार्थ में सिद्ध है। अर्थात् श्रुताधिगम्यमानत्व हेतु अपरमार्थभूत सर्वथा एकान्त धर्मों में नहीं रहता है अतः अनैकान्तिक हेत्वाभास नहीं है॥१२॥ इसलिये श्रुतज्ञानगम्यत्व हेतु की अव्यभिचारिता, पक्षव्यापकता सामान्य रूप से जान लेनी चाहिए। इसलिए सर्वज्ञ को सिद्ध करना निर्दोष है। अतः सर्वज्ञ के अभाव को सिद्ध करने के लिए मीमांसकों का ज्ञापकानुपलम्भन (सर्वज्ञ को सिद्ध करने वाले प्रमाणों की उपलब्धि नहीं होने रूप) हेतु (सर्वज्ञ पक्ष में नहीं रहता है अतः) असिद्ध है। वह असिद्ध हेतु सर्वतत्वार्थवेदी (सर्वज्ञ) के अभाव को सिद्ध करने में समर्थ नहीं है।॥१३॥ जो हेतु स्वयं सिद्ध है, वही किसी-न-किसी साध्य का साधक हो सकता है। जो हेतु सिद्ध नहीं है वह किसी साध्य का साधक नहीं हो सकता है। अन्यथा (असिद्ध हेतु यदि साध्य का साधक होगा तो) अतिप्रसंग दोष आयेगा। अर्थात् आकाश के पुष्प आदि भी साध्य को सिद्ध करने लगेंगे। थोड़ी देर के लिए 'ज्ञापकानुपलम्भन' हेतु को सिद्ध मान भी लेवें तो जो दोष आते हैं, उनको कहते हैं यदि स्वसम्बन्धी यह हेतु अपनी ही आत्मा में समवाय सम्बन्ध से रहने वाले ज्ञापक प्रमाणों के अनुपलम्भन हेतु सर्वज्ञ के अभाव का साधक होगा तो आपका यह हेतु व्यभिचारी हेत्वाभास है। क्योंकि समुद्र के सम्पूर्ण जल की सत्ता रूप जलकुंभ की संख्या का ज्ञापकानुपलंभ होने से व्यभिचार आता है। अर्थात् समुद्र के जल में घड़ों की संख्या का परिमाण है- किन्तु आपके पास उसका ज्ञापक प्रमाण नहीं है- तो क्या उसमें घड़ों का परिमाण नहीं है, उसी प्रकार आपके पास सर्वज्ञ को जानने का ज्ञापक प्रमाण नहीं है, तो क्या किसी के पास नहीं है। अत: ज्ञापकानुपलम्भ हेतु अनैकान्ताभास है॥१४॥
SR No.004284
Book TitleTattvarthashloakvartikalankar Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSuparshvamati Mataji
PublisherSuparshvamati Mataji
Publication Year2007
Total Pages450
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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