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________________ को देवत्व या गुरुत्व के रूप में श्रद्धान विपरीत मार्ग है। इन कषायों के निमित्त से सतत् असद्ध्यान होता है। ज्ञानार्णवकार की दृष्टि से भी अप्रशस्त ध्यान का लक्षण निम्नवत् है - "अशुभ उपयोग के वश प्राणियों के मूढता, मिथ्यात्व, वस्तुस्वरूप की विपरीतता और कषायों के निमित्त से निरन्तर अप्रशस्त ध्यान हुआ करता है। अभिप्राय यह है अशुभ उपयोग के वशीभूत प्राणी के मोहादि के निमित्त से जो आर्त व रौद्र स्वरूप चिन्तन होता है उसका नाम अप्रशस्त ध्यान है।'' अशुभोपयोग का विवेचन करते हुए आचार्य समन्तभद्र ने रत्नकरण्ड श्रावकाचार में भी विशेष स्पष्टीकरण किया है। वे कहते हैं - "द्वेष के कारण किसी प्राणी के वध, बन्धन, छेदन आदि का चिन्तन करना तथा राग के कारण परस्त्री आदि का चिन्तन करना अप्रशस्त ध्यान है।''2. ___ 'हिंसा, झूठ, चोरी, कुशीलसेवन और परिग्रह में ममता होने पर, क्रोध, मान, माया, लोभ, कुवानों, पक्षपात, मात्सर्यभाव, मद, प्रमाद, अशुभलेश्याओं, विकथाओं, निदान एवं गारवों के होने पर अशुभ भाव होते हैं। और इस अशुभभाव के सदभाव में होने वाला ध्यान अशुभध्यान होता है। शुद्धाशय या शुद्धोपयोग - - 'रागद्वेषादि की परम्परा के नष्ट हो जाने से अन्तरात्मा के प्रसन्नता के साथ स्व-पर विवेक के प्रगट होने पर जो आत्मस्वरूप की उपलब्धि होती है वह शुद्ध ध्यान है। - जबकि आचार्य कुन्दकुन्द इसी का स्वरूप इस तरह प्रस्तुत करते हैं - 'जिसने जीवाजीवादि पदार्थ और उनके प्रतिपादक शास्त्र को अच्छी तरह से जान लिया है, जो संयम और तप से सहित है, जिसका राग नष्ट हो चुका है और जो सुख-दुःख में समता परिणाम रखता है ऐसा श्रमण शुद्धोपयोग का धारक कहा जाता है / ' अथवा 'जो अशुभोपयोग से रहित है और शुभोपयोग में भी जो उद्यत नहीं हो रहा है ऐसा मैं आत्मातिरिक्त अन्य द्रव्यों में मध्यस्थ होता हूँ, और ज्ञानस्वरूप आत्मा का ही ध्यान करता हूँ।' जो अशुभोपयोग को पहले ही छोड़ चुका है अब शुभोपयोग में भी प्रवृत्त होने के लिए जिसका मन नहीं जाता, जो शुदात्मा को छोड़कर अन्य सब द्रव्यों में मध्यस्थ हो रहा है और जो निरन्तर सहज चैतन्य से उद्भासित एक निजशुद्ध आत्मा का ही ध्यान करता 1.ज्ञानार्णव, 3/30. 2. रत्नकरण्ड श्रावकाचार, 78. 3.रयणसार, 62-3. 4. ज्ञानार्णव, 3/31. 5. प्रवचनसार, 1/14, 2/67.
SR No.004283
Book TitleBhartiya Yog Parampara aur Gnanarnav
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRajendra Jain
PublisherDigambar Jain Trishala Mahila Mandal
Publication Year2004
Total Pages286
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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