________________ कहा जाता है जो अविद्या का नाशक और वस्तु के यथार्थ स्वरूप का प्रकाशक होता है तथा अर्णव का अर्थ समुद्र है। इस तरह यह ग्रन्थ अज्ञान का नाशक और अनेकानेक विषयों का समावेश करने वाला होने से समुद्रवत् विशाल है। अथवा जो स्वरूपत: अगाध एवं विशाल ज्ञान से समृद्ध है या अनेकानेक पदार्थों के सन्दर्भो से युक्त है वही ज्ञानार्णव है। अन्य नामों की सम्भावना - - आचार्य शुभचन्द्र द्वारा रचित ग्रन्थराज के नाम ज्ञानार्णव' के अतिरिक्त और भी हैं। जिनकी सूचना स्वयं ग्रन्थकार ग्रन्थ में ही यत्र-तत्र देते हैं। एक नाम के विषय में ग्रन्थ का उपान्त श्लोक कहता है - इति जिनपतिसूत्रात्सारमुद्धृत्य किञ्चित् स्वमतिविभवयोग्यं ध्यानशास्त्रं प्रणीतम् / * विबुधमुनिमनीषाम्भोधिचन्द्रायमाणं चरतु भवि विभूत्यै यावदीन्द्रचन्द्रान् / / ' अर्थात् मैंने अपनी बुद्धि के वैभव के अनुसार इस ध्यानशास्त्र की रचना की है। उपर्युक्त कश्चन से यह स्पष्ट हो जाता है कि इस कृति का एक अन्य नाम ध्यानशास्त्र भी है। इसका कारण स्पष्ट है कि इस ग्रन्थ में प्रमुखता से मोक्ष के साक्षात् कारणभूत ध्यान का विशद विवरण प्रस्तुत किया गया है। प्रसङ्गोपात्त अन्य विषयों का विवेचन ध्यान की सहायक सामग्री के आधार पर हुआ है। ग्रन्थ में ही उपलब्ध एक अन्य श्लोक है - * पुनात्याकर्णितं चेतो दत्ते शिवमनुष्ठितम् / ध्यानतन्त्रमिदं धीर धन्य योगीन्द्रगोचरम् / / उपर्युक्त श्लोक से इसके ध्यानतन्त्र नाम होने की भी सम्भावना प्रकट होती है। चूंकि प्रस्तुत ग्रन्थ में ध्यान का जितनी सूक्ष्मता एवं प्राञ्जलता से व्याख्यान किया गया है, उससे इसके ध्यानतन्त्र जैसा नाम होने में सन्देह न होकर पुष्टि की ओर ही गति होती है। ग्रन्थ के प्रत्येक प्रकरण की अन्तिम पुष्पिका वाक्य से इस ग्रन्थ का एक अन्य नाम योगप्रदीप होने की सूचना मिलती है / यद्यपि योग और ध्यान कोशार्थतया समानार्थक हैं और यह ग्रन्थ विषय परिज्ञान के लिए दीपक जैसा भास्वत् है / अत: 1. वही, 39/81. 2. ज्ञानार्णव, 3/25. 3. इति ज्ञानार्णवे योगप्रदीपाधिकारे आचार्यश्रीशुभचन्द्रविरचिते ब्रह्मव्रतविचारे कामप्रकोपप्रकरणम् / / 11 ||