________________ योगिभक्ति योगीश्वरान जिनान सर्वान योग - निर्धूत - कल्मषान् / योगैस्त्रिभि - रहं वंदे, योग - स्कंध - प्रतिष्ठितान् // 1 // प्रावृट्काले सविद्युत्-प्रपतित-सलिले वृक्षमूलाधिवासाः। हेमंते रात्रिमध्ये, प्रतिविगत-भयाः काष्ठवत् त्यक्तदेहाः॥ ग्रीष्मे सूर्यांशुतप्ता, गिरिशिखरगताः स्थानकूटान्तरस्थाः। ते मे धर्म प्रदधुर्मुनिगणवृषभा मोक्षनिःश्रेणिभूताः // 2 // गिम्हे गिरिसिहरत्था, वरिसायाले रुक्खमूल रयणीसु। सिसिरे वाहिरसयणा, ते साहू वंदिमो णिच्चं // 3 // गिरि - कंदर - दुर्गेषु, ये वसन्ति दिगम्बराः। पाणिपात्र - पुटाहारास्ते यान्ति परमा गतिम् // 4 // 1. योग से कल्मष/कालुष्य/पाप को धोने वाले योगरूप तनों पर प्रतिष्ठित/स्थित सभी योगीश्वर जिनों को मैं तीनों योगों (मन, वचन, काय) से वन्दित/पूजित करता हूँ। 2. बिजली की चमक/तड़क युक्त मूसलाधार गिरते हुए जल वाले वर्षाकाल में वृक्ष-मूल-वासी, शीत-रात्रियों में भय रहित काष्ठ/लकड़ी के समान शरीर-त्यागी, शीत-योग-वासी तथा गर्मी में सूर्य की किरणों से तपे हुए पर्वतों की चोटियों के मध्य स्थित स्थानों में रहने वाले, मोक्ष के लिए नसैनी स्वरूप, मुनिगणों में श्रेष्ठ, वे योगी मुझे सद्धर्म प्रदान करें। 3. गर्मी में गिरि-शिखर के ऊपर स्थित, वर्षाकाल की रात्रि में वृक्षमूल में स्थित तथा शिशिर ठंडी में बाहर सोने वाले साधुओं की मैं वन्दना करता हूँ। 4. जो दिगम्बर साधु गिरि गुफाओं व दुर्गों में रहते हैं तथा पाणिपात्ररूपी पुट/दोने में आहार लेते हैं, वे परमगति को प्राप्त होते हैं। ध्यान की पात्रता सर्वपापास्रवे क्षीणे ध्याने भवति भावना / पापोपहतवृत्तीनां ध्यानवार्तापि दुर्लभा / / अर्थात्-जब समस्त पापों का आस्रव क्षीण हो जाता है तभी ध्यान की भावना होती है / जिनकी वृत्ति/आचरण पाप से उपहत हो रही है ऐसे पुरुषों को ध्यान की बात करना भी दुर्लभ है।