________________ अनुसार अभिज्ञाएँ अर्थात् लब्धियाँ दो प्रकार की होती हैं - लौकिक और लोकोत्तर।' लौकिक अभिज्ञाओं के अन्तर्गत ऋद्धिविध, दिव्यस्रोत, चैतीपयेज्ञान-पूर्वनिवासानुस्मृति एवं चित्योत्पाद अभिज्ञाएँ हैं जिनसे क्रमश: आकाशगमन, पशु-पक्षी की बोलियों का ज्ञान, परचितविज्ञानता, पूर्वजन्मों का ज्ञान तथा दूरस्थ वस्तुओं का दर्शन होता है। लोकोत्तर अभिज्ञा की प्राप्ति तब होती है, जब साधक अर्हत् अवस्था को प्राप्त करके पुन: जन साधारण के समक्ष निर्वाण-मार्ग को बतलाने के लिए उपस्थित होता है। जैनयोग में लब्धियाँ - वैदिक एवं बौद्ध योग की ही भाँति जैन योग में भी तप, समाधि, ध्यानादि दारा अनेक प्रकार की लब्धियाँ प्राप्त करने का वर्णन मिलता है। अन्य जैन योग ग्रन्थों की अपेक्षा ज्ञानार्णव एवं योगशास्त्र में लब्धियों का विवेचन स्पष्ट एवं विस्तृत रूप में हुआ है। इन दोनों ग्रन्थों में विस्तार पूर्वक विभिन्न प्रकार की लब्धियों और चमत्कारिक शक्तियों का वर्णन है, जैसे जन्म-मरण का ज्ञान, शुभ-अशुभ शकुनों का ज्ञान, परकायाप्रवेश, कालज्ञान आदि। ध्यातव्य है कि इन लब्धियों की प्राप्ति जैनयोग साधना का बाह्य अंग है, आन्तरिक नहीं, क्योंकि योग-साधना का मू उद्देशय कर्म एवं कषायादि का क्षय करके सम्यग्दर्शन, ज्ञान और सिद्धि रूप में मोक्ष प्राप्त करना है। जैनदर्शन के अनुसार लब्धिप्राप्ति के लिए कुछ करने की आवश्यकता नहीं, वे तो प्रासंगिक फल के रूप में स्वत: निष्पन्न या प्रकट होती है। अत: साधक अथवा योगी इन लब्धियों से युक्त होकर भी कर्मों के क्षय का ही उपाय करते हैं तथा मोक्षपथिक बनते हैं। वे लब्धियों में अनासक्त रहकर आत्मसाधना में लगे रहते हैं। जैनयोगमत पातंजलयोग के समान जैनपरम्परा में भी यह मान्यता रही है कि तप, ध्यान और योगसाधना से ऋद्धि एवं सिद्धियों की प्राप्ति होती है। आचार्य हरिभद्र', शुभचन्द्र, हेमचन्द्र तथा उपाध्याय यशोविजय ने भी उक्त मान्यतानुसार अपनी सहमति व्यक्त की है। जैन-परम्परा में पातंजलयोग के विभूति' शब्द को 'कर्मसम्पदा' नाम से भी अभिहित किया गया है, यद्यपि वहाँ विभूति शब्द के स्थान पर ऋद्धि अथवा लब्धि शब्द का प्रयोग अधिक मिलता है। योगसिद्धियाँ साधक की मध्यवर्तिनी अवस्थाएँ हैं, इसी दृष्टि से आचार्य जिनदास ने मोक्ष को 'परम अवस्था' और यौगिक विभूति आदि को 'अपरम अवस्था' कहा है। 1. विशुद्धिमार्ग, मार्ग 1, पृ. 34." 2. ज्ञानार्णव, 26 सर्ग. 3. तत्त्वार्थराजवार्तिक, 9/6/27. 4.योगशतक, 83-4. 5. ज्ञानार्णव, 35/29. 6. योगशास्त्र, 1/8. 7. दात्रिंशद्वात्रिंशिंका, 9/14., 18/24. 8. उत्तराध्ययनसूत्र, 1/47. 9. दशवैकालिक, 9/2/2. 208