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________________ करे, उस स्थिति में उत्तेजित न होना, किन्तु योग्यता की विचित्रता का चिन्तन करता है वही माध्यस्थ भावना है। माध्यस्थ भावना का ढसरा नाम उपेक्षावत्ति भी है। रागढेष को न करना, सुख-दुःख की प्रतिकूल स्थितियों में भी समान रूप से रहना सदैव उपेक्षावृत्ति एवं माध्यस्थ भावना में रमण करना ये ही इस भावना के चिह्न है।' जो साधक इस भावना का अभ्यास करता है वह प्रतिकूल स्थिति आने पर भी समभाव से यही सोचता है कि दु:ख और सुख एक सिक्के के दो पहलू हैं इनमें से कभी सुख आता है और कभी दुःख / सुख आने पर अत्यधिक हर्ष नहीं करता और दु:ख के आगमन पर विषाद भी नहीं करता। माध्यस्थ भावना दिमुखी है - यह राग और द्वेष दोनों पर ही विजय प्राप्त करती है। दोनों ही परिस्थितियों में समभाव से रहने वाले साधक सदैव सुखी रहते हैं। जो मनुष्य सुख आने पर भावों में आसक्त हो जाता है और प्रतिकूल परिस्थितियों के आने पर देष भाव से युक्त हो जाता है वह अज्ञानी पुरुष हमेशा दुःखी रहता है। वह यही सोचता है किये सांसारिकसुख और दुःख की परिस्थितियाँ न तो शाश्वत हैं और न ही स्थिर, ये सब संसार तो परिवर्तनशील है, इसीलिए रागद्वेष की भावना करना व्यर्थ है और उसके (साधक) इन्हीं विचारों से वह समभाव की स्थिति में पहुँच जाता है। जहाँ उसे न तो शोक होता है और न हर्ष, वह इन सबसे परे पहुँच जाता है। जहाँ उसे न तो कषायों की कलुषता रहती है न ही रागदेष की ज्वाला जलती है वह तो इन्द्रियों पर भी विजय प्राप्त कर लेता है। यह माध्यस्थ भावना समत्व योग की अन्तिम परिणति है, लक्ष्य बिन्दु है। इन मैत्री आदि चारों भावनाओं से साधक वीतरागता को प्राप्त करता है। उसके आत्मिक भावों की उन्नति होती है और एक दिन वह आत्मोन्नति के शिखर पर पहुँच जाता है यही मानव का चरम लक्ष्य है जो वह प्राप्त कर लेता है, और उसके विशुद्ध ध्यान का क्रम जो विच्छिन्न होता है वह पुन: सध जाता है।' आत्मध्यान की प्रक्रिया - यत्पश्यामीन्द्रियैस्तन्मे नास्ति यन्नियतेन्द्रियः। अन्त: पश्यामि सानन्दं तदस्तु ज्योतिरुत्तमम् / / मैं जो अन्तर में इन्द्रियों को संवरित करके, अतीन्द्रिय रूप से देखता हूँ, वही परमानन्दमय उत्तम ज्योति है, वही मेरा रूप है। इन्द्रियों के द्वारा जो शरीरादि रूप दिखता है वह मेरा रूप नहीं है। मात्र परमानन्दमय उत्तम ज्योति स्वरूप के दर्शन की प्रेरणा की गई 1. ज्ञानार्णव, 27/11-12. 2. वही, 27/8-10. 3. उत्तराध्ययन, 32/91. 4. ज्ञानार्णव, 27/14. 5. ज्ञानर्णव, 27/19. 6. समाधितन्त्र 15 195
SR No.004283
Book TitleBhartiya Yog Parampara aur Gnanarnav
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRajendra Jain
PublisherDigambar Jain Trishala Mahila Mandal
Publication Year2004
Total Pages286
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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