________________ करता हुआ सभी का मंगल करता है। वह हमेशा यही विचार करता है कि सारे संसार के जीव मेरे अपने हैं इन सब ने मेरे ऊपर बहुत उपकार किये हैं। इस प्रकार की भावना से उसका मैत्री भाव बढ़ता है। उसके इस स्वभाव का प्रभाव अन्य लोगों पर भी पड़ता है और वे भी शत्रुता को छोड़कर साधक बन जाते हैं। इस भावना का विषय प्राणीमात्र है। इसको भाने वाला योगी समता धारक बन जाता है। ___ प्रमोद - आध्यात्मिक उन्नति और अध्यात्म योग की साधना के लिए साधक को गुण ग्रहण करने चाहिए। साधक गुणों को तभी ग्रहण कर सकता है जब वह गुणवान व्यक्तियों के प्रति प्रेम भाव रखे और उनका सम्मान करे। प्रमोद भावना की साधना के द्वारा व्यक्ति (साधक) अपनी गुण को ग्रहण करने की शक्ति को उन्नत करता है। गुणी लोगों के सम्पर्क में आने से एवं उनसे प्रेम करने व उनका सम्मान करने से उसके अन्दर भी सभी सद्गुण आ जाते हैं, उसकी इसी विनम्रतापूर्ण भावना से उसके सद्गुणों का विकास होता है कि तुम्हारा आर्जव आश्चर्यकारी है और आश्चर्यकारी है तुम्हारा मार्दव। उत्तम है तुम्हारी क्षमा और मुक्ति।' इस प्रमोद भावना को समता योग का नेत्र कहा गया है। जैसे नेत्र सुन्दर, असुन्दर सभी चीजों को देखता है किन्तु सुन्दर वस्तुओं के प्रति ही आकर्षित होता है। उसी प्रकार से गुणी व्यक्ति सद्गुणों को ही ग्रहण करता है। यह गुणग्रहण करना ही प्रमोद भावना कहलाती है। कारुण्य - बन्धन से मुक्त करने का प्रयत्न व चिन्तन करना ही कारुण्य भावना कहलाती है। अर्थात् जो साधक कारुण्य भावना का अनुचिन्तन करता है वह न तो स्वयं कभी भयभीत रहता है और न ही कभी किसी को भयभीत करता है। अपितु वह भय से आक्रान्त एवं दु:खी प्राणियों के प्रति प्रेम रखता है और चाहता है कि सभी सुखी रहें, सब के दु:खों का अन्त हो जाए। कारुण्य का बार-बार अभ्यास करने से साधक का हृदय ढ्या से परिपूर्ण हो जाता है, उसके हृदय में करुणा एवं वात्सल्य का सागर उमड़ने लगता है। वह 'स्व' और 'पर' दोनों प्रकार की दया से परिपूर्ण व्यवहार करता हुआ उनका पालन करता है। स्व अर्थात् अपनी आत्मा को पीड़ित नहीं करता तथा पर अर्थात् वह कभी भी दूसरों को कष्ट नहीं देता। यह भावना समता योग का हृदय कहलाती है। जिस प्रकार शरीर में हृदय का जो स्थान होता है, उसी प्रकार समतायोग में कारुण्यभावना का होता है। जिस साधक का चित्त निर्मल एवं हृदय कोमल होता है जो किसी दूसरे का दु:ख न देख सकता हो, उसी को समतायोग की साधना की सिद्धि प्राप्त होती है, कठोर हृदय वाला इसकी साधना नहीं कर सकता। यह अध्यात्म योग का लक्ष्य है। माध्यस्थ - समझाने-बुझाने पर भी सामने वाला व्यक्ति दोष का त्याग न 1. ज्ञानर्णव, 27/7. 2. ज्ञानर्णव, 25/8-10. 194