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________________ सर्वथा नित्य व अनित्यता से रहित हैं, ध्येय होते हैं। इनमें पुदगल मूर्तिक द्रव्य है और शेष अमूर्तिक। जीव जो कि अमूर्तिक द्रव्य हैं उसमें दो प्रकार से ध्येयता बनती है - एकतो कर्मरूप आवरण से युक्त सर्वज्ञदेव, जो कि सकल अर्थात् देहसहित हैं किन्तु कल्याण के पूरक अरहंत भगवान् हैं और दूसरे निरावरण व निष्कल अर्थात् शरीररहित सिद्ध भगवान् / ये जीवादिक षद्रव्य चेतन और अचेतन लक्षण से लक्षित हैं। धर्मध्यान में बुद्धिमान् पुरुषों को इनके स्वरूप का अविरोधपूर्वक यथार्थ स्वरूप का ध्यान करना चाहिए। द्रव्यों का स्वरूप सम्यग्दर्शन के प्रकरण में विवेचित हो चुका है। ध्यान सदाकाल नहीं होता अत: ध्यान के निवृत्त होने के बाद बुद्धिमान पुरुष मन को सावधान रूप वैराग्य को प्राप्त कर करुणामयी समुद्र में मग्न करते हैं। आगे परमात्मा के ध्यान और स्वरूप का निर्देश करते हुए लिखा है कि - 'वह परमात्मा आकार-सहित शरीराकार मूर्तिक है तथा निर्गताकार अर्थात् निराकार है, निष्क्रिय (क्रिया रहित) - परमात्मस्वरूप विकल्परहित, निष्कम्प, नित्य एवं आनन्द का घर है। . . . विश्वरूप अर्थात् समस्त ज्ञेयों के आकार जिसमें प्रतिबिम्बित हैं, अविज्ञात स्वरूप है अर्थात् जिसका स्वरूप मिथ्यादृष्टियों ने नहीं जाना है तथा सदाकाल उदय रूप है, कृतकृत्य है, जिसको कुछ भी करना शेष नहीं रहा है तथा शिव व कल्याणरूप है, शान्त (क्षोभरहित) निष्कल अर्थात् शरीररहित तथा करुणाच्युत, इन्द्रियरहित तथा समस्त भवों से उत्पन्न हुए क्लेशमय वृक्षों को दग्ध करने के लिए अग्नि के समान है तथा शुद्ध, कर्मरहित, अत्यन्त निर्लेप अर्थात् जिनके कर्म रूपी लेप नहीं है तथा ज्ञानरूपी राज्य में अर्थात् सर्वज्ञता में स्थित है। तथा निर्मल दर्पण में प्राप्त हुए प्रतिबिम्ब के समान प्रभावाला ज्योतिर्मय है अर्थात् जिसका ज्ञान प्रकाशरूप है, तथा अनन्त वीर्ययुक्त तथा परिपूर्ण है। जिसके कुछ भी अवयव (अंश) घटते नहीं, पुरातन है अर्थात् किसी ने नया बनाया नहीं। तथा निर्मल, सम्यक्त्वादि अष्टगुण सहित है, निर्द्वन्द, रागादिक से रहित, रोग रहित है, अप्रमेय अर्थात् जिसका प्रमाण नहीं किया जा सकता तथा परिज्ञात अर्थात् भेदज्ञानी पुरुषों के दारा जाना हुआ तथा समस्त तत्त्वों से व्यवस्थित अर्थात् निश्चय रूप है। तथा बाह्यभावों से तो ग्रहण करने योग्य नहीं है और अन्तरंग भावों से क्षणमात्र में ग्रहण करने योग्य है। इस प्रकार आत्मा का स्वरूप संसार अवस्था में तो शक्तिरूप और मुक्त अवस्था में व्यक्ति रूप है, ऐसा जानकर परमात्मा को ध्यानगोचर करना चाहिए।' जो परमात्मा परमाणु से भी सूक्ष्म और आकाश से भी महान् है वह सिद्धात्मा जगत् से वंद्य निष्पन्न और अत्यन्त सुखमय है। जो वचनों के अगोचर है और अव्यक्त है, शब्द से वर्जित जन्मरहित (अज) तथा भवभ्रमण से रहित है, ऐसे परमात्मा का निर्विकल्प होकर चिन्तवन करें। 1. ज्ञानार्णव, 24/16, 18 ___2. ज्ञानार्णव, 31/22-27... 192
SR No.004283
Book TitleBhartiya Yog Parampara aur Gnanarnav
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRajendra Jain
PublisherDigambar Jain Trishala Mahila Mandal
Publication Year2004
Total Pages286
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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