________________ इसलिए स्थूल एवं इन्द्रियगोचर पदार्थों से सूक्ष्म इन्द्रियों के अगोचर पदार्थों का चिन्तवन करना आवश्यक माना गया है। अग्रत: किये जाने वाले ध्यान के भेद ध्येय - ध्यान के विषय की अपेक्षा होते हैं। जिनके नाम हैं - 1. पिण्डस्थ, 2. पदस्थ, 3. रूपस्थ और 4. रूपातीत / इन भेदों के सम्बन्ध में कतिपय मतभेद दृष्टिगोचर होता है, क्योंकि इस वर्गीकरण का वर्णन प्राचीन साहित्य जैसे मूलाचार, भगवती आराधना, तत्त्वार्थसूत्र, स्थानांग, हरिवंशपुराण और आदिपुराण आदि में भी उपलब्ध नहीं होता। अब तक भी इनके प्रथम स्रोत का स्पष्ट उल्लेख निर्धारित नहीं हो सका है, विक्रम की दसवीं शती में होने वाले देवसेन के भावसंग्रह में सर्वप्रथम उल्लेख है।' ज्ञानसार एवं योगसार में भी इन भेदों का उल्लेख हुआ है परन्तु ज्ञानसार में जहाँ इनके तीन ही भेदों - पिण्डस्थ, पदस्थ और रूपस्थ का वर्णन किया है, वहीं योगसार में मात्र इनके नामों का उल्लेख है। आचार्य वसुनन्दी ने ज्ञानार्णव की तरह चारों ही भेदों का विवेचन विस्तार से किया है। इसके अलावा भी कतिपय ग्रन्थों में इन भेदों का विवरण या नामोल्लेख मिलता है किन्तु वहाँ या तो इनके नामों में परिवर्तन हुआ या फिर क्रम का परिवर्तन दृष्टिगोचर होता है। यथा - नवचक्रेश्वरतन्त्रशास्त्र में इनके नाम पिण्ड, पद, रूप और रूपातीत दिये 1. पिण्डस्थध्यान - ___ 'पिण्डस्थं स्वात्मचिन्तनम्' अर्थात् आत्म स्वरूप या निजात्मा का चिन्तवन करना ही पिण्डस्थ ध्यान है। पिण्ड अर्थात् शरीर और उस शरीर में रहने वाली आत्मा का चिन्तन पिण्डस्थ ध्यान के अन्तर्गत होता है। भावसंग्रह में आचार्य देवसेन ने इसका लक्षण करते हए कहा है 'शरीर में अच्छे गुण वाले आत्मप्रदेशों के समूह का चिन्तन करना पिण्डस्थ ध्यान है।' जबकि ज्ञानसार में अपने नाभि के मध्य स्थित अरहन्त के स्वरूप के विचार करने को पिण्डस्थ ध्यान बतलाया गया है। एक अन्य परिभाषा के अनुसार इसका स्वरूप है - 'श्वेत किरणों से 1. ध्यानशतक, प्रस्तावना, पृ. 18. भावसंग्रह, गाथा 619. 2. ज्ञानसार, 18-28. योगसार, 98. 3. पिण्डं, पदं तथा रूपं, रूपातीतं चतुष्टयम् / यो वा सम्यग् विजानाति, स गुरु: परिकीर्तितः।। 4. द्रव्यसंग्रह, टीका, 48/205. 5. भावसंग्रह, गाथा 622. ___6. ज्ञानसार, 19-20 156