________________ इसी प्रकार अपनी दुःखपूर्ण स्थिति का विचार करता हुआ सोचता है - 'मैं क्या करूँ, कहाँ जाऊँ, दूषित कर्मपुंज मेरे सामने हैं, जिसे मुझे भोगना होगा, मैं किसकी शरण लूँ ? मैं अभागा हूँ - भाग्यहीन हूँ।'' आचार्य शुभचन्द्र ने नारकीय यातनाओं का जो भावपूर्ण वर्णन किया है वह हृदय को कंपा देता है। ध्याता के मन में यह भाव उदित होता है कि इस प्रकार के कर्म अब मुझसे कभी न बन पड़े, जिसके परिणामस्वरूप ऐसी असह्य वेदना सहन करना पड़े। अधोलोक के वर्णन के बाद ग्रन्थकारने मध्यलोक का वर्णन किया है - 'अधोलोक के ऊपर झल्लरी-झालर या बजाने के घण्टे के समान गोलाकार मध्यलोक है। उसमें गोल वलयों - कंकणों के तुल्य असंख्यात दीपसमुद्र हैं। विविध दीप-समुद्रों के अन्तर्गत अढाई दीप और जम्बूदीप आदि हैं, जिनमें मनुष्य क्षेत्र आर्यखण्ड और म्लेच्छखण्ड आदि ___ इसी तरह देवलोक का भी विस्तार से वर्णन ग्रन्थकार ने किया है। उसमें रहने वाले देवों, उनके भवनों, पार्षदों, परिचारकों आदि का वर्णन भी यथेष्ट विस्तृत हुआ है। भौतिकदृष्टि से सुख की जो सर्वोत्कृष्ट कल्पना हो सकती है उसका संपूर्ण वैभव के साथ दृश्यमान कथन यहाँ हुआ है। यथा - "देवलोक में प्रावृट, शीत और ग्रीष्म ये ऋतुएँ नहीं होती। सदा एक-सी ही ऋतु रहती है, जिसमें न सर्दी होती है, न गर्मी और न वर्षा / वहाँ उत्पात, भय एवं संतापादि दृष्टिगोचर ही नहीं होते। वहाँ न कोई दीन है, न दुखित, न कोई वृद्ध है, न रुग्ण, न विकलांग है, न कांतिहीन / देवों के परिचारक, बन्दीजन, स्तुतिगायक तथा अंगरक्षक देव हैं, विलासिनी नर्तकियाँ - अप्सराएँ हैं, जहाँ जीवनपर्यन्तभोगमय सौन्दर्य-विलास एवं वैभवोपभोग होता रहता है।''3 आचार्य शुभचन्द्र का कथन है कि - 'यद्यपि यह लोक केवलज्ञान के गोचर अर्थात् सर्वज्ञगम्य ही है। किन्तु योगी लोग संस्थानविचय धर्म्यध्यान के समय सामान्यत: इस समस्त लोक का अथवा इसके भिन्न-भिन्न अंशों का अपनी शक्ति के अनुसार चिन्तन करें और इसके अनन्तर अपने शरीरगत पुरुषाकार - आत्मा का, समग्र कर्म से रहित अत्यन्त शुद्ध स्वरूप का चिन्तन करें।' आगमों के उत्तरवर्ती साहित्य में ध्यान के चतुष्टय का दूसरा वर्गीकरण भी उपलब्ध होता है। किसी भी साधक का ध्यान एकाएक निरालम्ब वस्तु में स्थिर नहीं हो सकता, 1. वही, 36/42. 2. ज्ञानार्णव, 36/79-80. 3. वही, 33/89-92. 4. वही, 33/178-9. 155