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________________ अपने मन को निराकुल करके अपने ललाट पर निश्चलतापूर्वक धारण करे, यह विधि प्रत्याहार में कही गई है। आचार्य शुभचन्द्र कहते हैं कि समाधि को भलीभांति सिद्ध करने के लिए प्रत्याहार की प्रशंसा की जाती है। प्राणायाम से क्षोभ को प्राप्त हुआ मन स्वस्थता को प्राप्त नहीं होता है।' इन्द्रियसमूह का निरोध करके इन्हें अपने-अपने अभीष्ट विषय से विमुख करके समताभाव का आलम्बन लेता हुआ योगी मन को भालप्रदेश में भलीभांति लीन करके उसे स्थिर करे। इस प्रकार करने से समाधि की सिद्धि होती है। आचार्य ध्यान के स्थान ललाट के अतिरिक्त अन्य स्थानों का वर्णन करते हैं। निर्मल बुद्धि आचार्यों ने ध्यान करने के लिए नेत्रयुगल, दोनों कान, नासिका का अग्रभाग, ललाट, मुख, नाभि, मस्तक, हृदय, तालु, दोनों भौहों का मध्य भाग इन दश स्थानों में से किसी एक स्थान में अपने मन को विषयों से रहित करके आलम्बित करना अर्थात् इन स्थानों में से किसी एक स्थान पर ठहराकर ध्यान में लीन करना चाहिए। यही धारणा है। इन पूर्वोक्त स्थानों में विश्राम रूप ठहराये हुए लक्ष्य चिंतन करने योग्य ध्येय वस्तु का विस्तार करते हुए मुनि के स्वसंवेदन रूप से ध्यान के कारण बहुत ही उत्पन्न होते हैं अर्थात् जिसका ध्यान किया चाहे, उसकी ही सिद्धि होती है। उपर्युक्त छहयोगांगों के अतिरिक्त ध्यान और समाधि इन दो योगांगों का विवेचन ध्यान के विशद विवेचन नामक अध्याय में किया गया है। अत: उनको वहीं पर देखना चाहिए। इसलिए यहाँ पर उनका अलग से विवेचन नहीं किया गया है। धर्मध्यान के भेदों में ध्यान का और शुक्ल ध्यान के भेदों में समाधि का अन्तर्भाव किया गया है, ऐसा समझना चाहिए। साधना की सिद्धि के लिए मत-मतान्तरों के विविध जाल में उलझा साधक का मन सहायक सामग्री के उचित चुनाव या निर्धारण करने में किंकर्तव्यविमूढ़ हो जाता है। वहाँ दिविध - बाह्य एवं अन्तरंग सहायक सामग्री की शुद्धि एवं सक्रियता को बनाएं रखने की प्रतिबद्धता होती है। आचार्य शुभचन्द्र ने ध्यान-योग परम्परा में व्याख्यायित मानकों का पुनरीक्षण करते हुए वृद्धसेवा एवं अपरिग्रह जैसे नवीन मानकों को स्थापित कर ध्यानसाधना को नया आयाम दिया है। उनका यह अवदान श्रेष्ठता एवं मानकीय रूप होने के कारण सदैव स्मरणीय किया जाएगा। 1. ज्ञानार्णव 27/12-14. 135
SR No.004283
Book TitleBhartiya Yog Parampara aur Gnanarnav
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRajendra Jain
PublisherDigambar Jain Trishala Mahila Mandal
Publication Year2004
Total Pages286
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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