________________ सुख और दुःख की स्थूल परिभाषा यह है कि 'जो चाहो सो होवे, इसे कहते हैं सुख और चाहें कुछ और होवे कुछ या जो चाहे वह न होवे इसे कहते हैं दुःख / ' मनुष्य की चाह सदा यही रहती है कि मुझे सदा इष्ट का संयोग रहे और अनिष्ट का संयोग न हो। समस्त भौतिक जगत् और अन्य चेतन मेरे अनुकूल परिणति करते रहें, शरीर नीरोग हो, मृत्यु न हो, धन-धान्य हो, प्रकृति अनुकूल रहे आदि न जाने कितने प्रकार की चाह इस शेखचिल्ली मानव को होती रहती है। बुद्ध ने जिस दुःख को सर्वानुभूत बताया है, वह सब अभावकृत ही तो है। महावीर ने इस तृष्णा का कारण बताया है 'स्वरुप की मर्यादा का अज्ञान' / यदि मनुष्य को यह पता हो कि - 'जिनकी मैं चाह करता हूँ, और जिनकी तृष्णा करता हूँ, वे पदार्थ मेरे नहीं हैं, मैं तो एक चिन्मात्र हूँ, तो उसे अनुचित तृष्णा ही उत्पन्न न होगी।' सारांश यह कि दुःख का कारण तृष्णा है, और तृष्णा की उभूति स्वाधिकार एवं स्वरूप के अज्ञान या मिथ्याज्ञान के कारण होती है, पर-पदार्थों को अपना मानने के कारण होती है। अत: उसका उच्छेद भीस्वस्वरूप के सम्यग्ज्ञान यानि स्व-पर विवेक से ही हो सकता है। इस मानव ने अपने स्वरूप और अधिकार की सीमा को न जानकर सदा मिथ्याज्ञान किया है और पर पदार्थों के निमित्त से जगत् में अनेक कल्पित ऊँच-नीच भावों की सृष्टि कर मिथ्या अहंकार का पोषण किया है। शरीराश्रित या जीविकाश्रित ब्राह्मण, क्षत्रियादि वर्गों को लेकर ऊँच-नीच व्यवहार की भेदक भित्ति खड़ी कर, मानव को मानव से इतना जुदा कर दिया, जो एक उच्चाभिमानी मांसपिण्ड दूसरे की छाया से या दूसरे को छूने से अपने को अपवित्र मानने लगा। बाह्य पर पदार्थों के संग्रही और परिग्रही को महत्त्व देकर इसने तृष्णा की पूजा की। जगत् में जितने संघर्ष और हिंसाएँ हुई हैं वे सब पर पदार्थों की छीना-झपटी के कारण हुई हैं। अत: जब तक मुमुक्षु अपने वास्तविक स्वरूप को तथा तृष्णा के मूल कारण ‘पर में आत्मबुद्धि' को नहीं समझ लेता तब तक दु:खनिवृत्ति की समुचित भूमिका ही तैयार नहीं हो सकती।'' सम्यग्दर्शन के भेद - यह सम्यग्दर्शन पुरुषों के द्रव्य, क्षेत्र, काल, भाव रूप सामग्री से दर्शनमोह कर्म की तीन प्रकृतियों के क्षय, उपशम या क्षयोपशम होने से क्रमश: तीन प्रकार का है - 1. क्षायिकसम्यक्त्व, 2. उपशमसम्यक्त्व और 3. क्षयोपशमसम्यक्त्व। दर्शनमोह के नाश में भी द्रव्य, क्षेत्र, काल व भाव हेतु होते हैं। श्री जिनेन्द्रबिम्ब आदि तो द्रव्य हैं, समवसरण आदि क्षेत्र हैं, अर्धपुद्गल परिवर्तन विशेष काल हैं, 1. डॉ. महेन्द्रकुमार जैन न्यायाचार्य स्मृति ग्रन्थ, पृ. 266-8. 2. क्षीणप्रशान्तमिश्रासु मोहप्रकृतिषु क्रमात्। तत् स्याद द्रव्यादिसामग्रचा पुंसां सद्दर्शनं त्रिधा / / - ज्ञानार्णव, 6/7. 84