________________ वाला है और जिसने सम्यग्मिथ्यात्व प्रकृति की भी उढेलना कर ली है वह छब्बीस प्रकृतियों की सत्ता वाला होता है।' आत्मदृष्टि ही सम्यग्दृष्टि - सम्यग्दर्शन के विषय में न्यायाचार्य डॉ. महेन्द्रकुमार ने तत्त्व निरूपण नामक लेख में अपने मौलिक व मर्मस्पर्शी विचार प्रकट करते हुए लिखा है - "बुद्ध के तत्त्वज्ञान का प्रारम्भ दुःख से होता है और उसकी समाप्ति होती है दु:खनिवृत्ति में / वे समझते हैं कि आत्मा अर्थात् उपनिषदवादियों को नित्य आत्मा और नित्य आत्मा में स्वबुद्धि और दूसरे पदार्थों में परबुद्धि होने लगती है। स्व-पर विभाग के रागद्वेष से यह संसार बन जाता है। अत: समसत अनर्थों की जड़ आत्मदृष्टि है। वे इस ओर ध्यान नहीं देते कि आत्मा की नित्यता और अनित्यता राग और विराग का कारण नहीं है। राग और विराग का कारण तो स्वरूप का अज्ञान और स्वरूप का सम्यग्ज्ञान से है। राग का कारण है पर पदार्थों में ममकार करना / जब इस आत्मा को समझाया जाता है कि मूर्ख, तेरा स्वरूप तो निर्विकार, अखण्ड चैतन्य है, तेरा इन स्त्री-पुत्रादि तथा शरीर में ममत्व करना विभाव है, स्वभाव नहीं, तब यह सहज ही अपने निर्विकार स्वभाव की ओर दृष्टि डालने लगता है और इसी विवेकदृष्टि या सम्यग्दर्शन से पर-पदार्थों से रागद्वेष हटाकर स्वरूप में लीन होने लगता है। इसी के कारण आस्रव रुकते हैं, और चित्त निरास्रव होने लगता है। इस प्रतिक्षण परिवर्तनशील अनन्त द्रव्यमय लोक में मैं एक आत्मा हूँ, मेरा किसी दूसरे आत्मा या पुद्गलद्रव्यों से कोई सम्बन्ध नहीं है। मैं अपने चैतन्य का स्वामी हूँ। मात्र चैतन्यरूप हूँ। यह शरीर अनन्त पुद्गल परमाणुओं का एक पिण्ड है। इसका मैं स्वामी नहीं हूँ। यह सब परद्रव्य हैं। पर पदार्थों में इष्टानिष्ट बुद्धि करना ही संसार है। आज तक मैंने पर पदार्थों को अपने अनुकूल परिणमन कराने की अनधिकार चेष्टा ही की है। मैंने यह भी अनधिकार चेष्टा की है कि संसार के अधिक-से-अधिक पदार्थ मेरे अधीन हों, जैसा मैं चाहूँ वैसा वे परिणमन करें। उनकी वृत्ति मेरे अनुकूल हो। पर मूर्ख, तू तो एक व्यक्ति है। तू तो केवल अपने परिणमन पर अर्थात् अपने विचारों और क्रिया पर ही अधिकार रख सकता है। पर पदार्थों पर तेरा वास्तविक अधिकार क्या है ? तेरी यह अनधिकार चेष्टा ही राग और द्वेष को उत्पन्न करती है। तू चाहता है कि शरीर, स्त्री, पुत्र, परिजन आदि सब तेरे इशारे पर चलें। संसार के समस्त पदार्थ तेरे अधीन हों, तू त्रैलोक्य को अपने इशारे पर नचाने वाला एकमात्र ईश्वर बन जाएं / यह सब तेरी निरधिकार चेष्टाएँ हैं। तू जिस तरह संसार के अधिकतम पदार्थों को अपने अनुकूल परिणमन कराके अपने अधीन करना चाहता है उसी तरह तेरे जैसे अनन्त मूढ चेतन भी यही दुर्वासना लिये हुए हैं और दूसरे द्रव्यों को अपने अधीन करना चाहते हैं। इसी छीना-झपटी में संघर्ष होता है, हिसा होती है, रागद्वेष होते हैं और होता है अन्तत: दुःख ही दुःख। 1. तत्त्वार्थराजवार्तिक, 9/1/13 पृ. 588. 83