________________ में अनेक अर्थों में प्रयुक्त हुआ है। जीवादि पदार्थों के स्वरूप देखना, जानना, श्रद्धा करना 'दर्शन' है। सामान्यतया दर्शन शब्द देखने के अर्थ में व्यवहृत होता है, लेकिन यहाँ दर्शन शब्द का अर्थ मात्र नेत्रजन्य बोध नहीं है / इसमें इन्द्रियबोध, मनोबोध और आत्मबोध सभी सम्मिलित हैं। दर्शन शब्द के अर्थ के सम्बन्ध में जैन परम्परा में काफी विचार हुआ है। दर्शन को ज्ञान से अलग करते हुए विचारकों ने दर्शन को अन्तर्बोध या प्रज्ञा और ज्ञान को बौद्धिक ज्ञान कहा है। नैतिक जीवन की दृष्टि से विचार करने पर दर्शन शब्द का दृष्टिकोणपरक अर्थ किया गया है। दर्शन शब्द के स्थान पर 'दृष्टि' शब्द का प्रयोग, उसके दृष्टिकोणपरक अर्थ का द्योतक है। ___प्राचीन जैन आगमों में दर्शन शब्द के स्थान पर दृष्टि शब्द का प्रयोग अधिक . मिलता है। तत्त्वार्थसूत्र और उत्तराध्ययन सूत्र में दर्शन शब्द देव, गुरु और धर्म के प्रति श्रद्धा या भक्ति के अर्थ में प्रयुक्त हुआ है। इस प्रकार जैन परम्परा में सम्यग्दर्शन अपने में तत्त्व-साक्षात्कार आत्मसाक्षात्कार, अन्तर्बोध, दृष्टिकोण, श्रद्धा और भक्ति आदि अर्थों को समेटे हुए है। सम्यग्दर्शन का लक्षण और भेद - आचार्य शुभचन्द्र ने अपने ग्रन्थ ज्ञानार्णव में सम्यग्दर्शन का विस्तार से कथन किया है। वे सम्यग्दर्शन के लक्षण व भेद बतलाते हुए कहते हैं - वह सम्यग्दर्शन निसर्ग (स्वभाव से) अथवा अधिगम (परोपदेश) से भव्य जीव के ही उत्पन्न होता है अभव्य के नहीं होता। आचार्य आदि के साक्षात् उपदेश के बिना पूर्वभव के संस्कारवश स्वभाव से ही तत्त्वार्थ की जो रुचि उत्पन्न होती है उसे निसर्गज सम्यग्दर्शन कहते हैं तथा जो दूसरों के उपदेश आदि से तत्त्व की श्रद्धदा उत्पन्न होती है उसे अधिगमज सम्यग्दर्शन कहते हैं। . दुरभिनिवेश - विपरीत अभिप्राय रहित पदार्थों का श्रद्धान कर्तव्य-अकर्तव्य का विवेक सम्यग्दर्शन कहा जाता है, किन्हीं को स्वभाव से ही होता है और किन्हीं को उपदेशपूर्वक / आज्ञा आदि की अपेक्षा से यह दश प्रकार का तथा कर्मों के उपशम, क्षय, क्षयोपशम की अपेक्षा से तीन प्रकार का होता है। इनमें से पहले के दो अत्यन्त निर्मल होते हैं पर तीसरा समल होने से कदाचित् इसमें कुछ अतिचार संभव होते हैं। राग के सद्भाव व अभाव की अपेक्षा भी इसके भेद होते हैं / यथा - सराग 1. अभिधानराजेन्द्रकोश, खण्ड 5, पृ. 2425. 2. सम प्राब्लेम्स इन जैन साइक्लोजी, पृ. 32. 3. अभिधानराजेन्द्र कोश, खण्ड 8, पृ. 2525. 4. तत्त्वार्थसूत्र, 1/2. 5. उत्तराध्ययन, 28/35. 6. ज्ञानार्णव, 6/6