________________ वस्तुतः भ. महावीर तो प्राणिमात्र के अधिकारों की रक्षा के मौलिक उपदेशक थे। इस प्रकार भ. महावीर को हम दास-प्रथा मुक्ति के सूत्रधार और मानवाधिकारों की रक्षा के प्रथम प्रवक्ता के रूप में पाते हैं। उनके "जियो और जीने दो" के उद्घोष का समाजशास्त्र, अर्थशास्त्र और पर्यावरण की दृष्टि से अत्यधिक महत्व है। श्रम विभाजन ___मशीनीकरण और औद्योगीकीकरण नहीं होने से प्रचीन समय में अर्थव्यवस्था मुख्यतः मानव-श्रम पर अवलम्बित थी। खेती-बाड़ी और कुटीर उद्योग शारीरिक श्रम पर आधारित थे। धर्मसेनगणि कहते हैं कि अकुशल श्रमिक दिनभर मेहनत करके भी बहुत अल्प अर्जित कर पाता है जबकि कुशल श्रमिक अपने कौशल से कम परिश्रम में ही अधिक अर्जित कर लेता है। स्पष्ट है कि उस समय कुशल-अकुशलं, शारीरिक-बौद्धिक आदि दृष्टियों से श्रम विभाजन होता था। जैन परम्परा में श्रम का यह वर्गीकरण कार्य और योग्यता पर आधारित था; न कि जाति और जन्म के आधार पर। जबकि वैदिक परम्परा में जन्म व जाति के आधार पर श्रम-व्यवस्था रूढ़ हो गई थी। किसी भी कार्य को निरन्तर और बार-बार करने से व्यक्ति उसमें निष्णात हो जाता है। नन्दीसूत्र में एक दक्ष स्वर्णकार का वर्णन आता है, जो अंधेरे में स्पर्श मात्र से सोने और चाँदी का भेद कर लेता था।” अनेक स्थानों और नगरों का नामकरण काम-धन्धों और व्यवसायों के आधार पर रखा जाता था। वाणिज्यग्राम, कुम्हारग्राम, क्षत्रियग्राम, ब्राह्मणग्राम, निषादग्राम आदि नाम अपने आप में श्रमाधारित व्यवस्था का संकेत करते हैं। असल में रुचि और योग्यता के आधार पर श्रम का वर्गीकरण स्वतः हो जाता है। जब जन्म, जाति और जातीय आरक्षण जैसे आग्रह बढ़ जाते हैं तो अर्थ व्यवस्था और विकास पर विपरीत असर होता है। योग्यता और गुणवत्ता की उपेक्षा उचित नहीं है। उस समय धनोपार्जन के प्रचुर साधन थे। मेहनत करके व्यक्ति आसानी से अपना और कुटुम्ब का भरण पोषण कर सकता था। बेरोजगारी विशेष नहीं थी। कुशल, बुद्धिमान और उद्यमशील व्यक्ति अपने व्यावसायिक साम्राज्य को विस्तार देकर आर्थिक गतिविधियों में विशेष योगदान करते थे। (57)