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________________ 6. गण-धर्म : गण का अर्थ समान आचार-विचार के व्यक्तियों के समूह से है। इस अर्थ में किसी क्षेत्र-विशेष या व्यवसाय-विशेष की बिरादरी को गण कहा जा सकता है। जो व्यक्ति जिस समुदाय का प्रतिनिधित्व करता है, उसे उसके नियमों का पालन करते हुए सामुदायिक उत्कर्ष के लिए यत्नशील रहना चाहिये, यह गण-धर्म है। जहाँ गणतन्त्र की बात है, वहाँ गण का अन्य अर्थ समान आचार-विचार के व्यक्तियों के समूह से नहीं हो सकता। वहाँ तो सभी प्रकार के आचार-विचार वाले व्यक्तियों की मौजूदगी अवश्यम्भावी है। वर्धमान महावीर की जन्म-स्थली कुण्डग्राम ज्ञातृ-क्षत्रियों का गणराज्य था। उनके पिता राजा सिद्धार्थ उसके गण-प्रमुख थे तथा माँ त्रिशला के पिता अथवा भाई महाराजा चेटक वैशाली गणराज्य के राष्ट्राध्यक्ष थे। कहा जा सकता है कि वर्धमान गणतान्त्रिक माहौल में पले-बढ़े थे। वर्तमान में प्रचलित लोकतान्त्रिकप्रणाली का सूत्र गणतन्त्र की व्यवस्थाओं में मिलते हैं। इस अर्थ में गण-धर्म के अन्तर्गत समता, स्वतन्त्रता, स्वायत्तता, सह-अस्तित्व आदि मूल्यों के अनुपालन व अनुरक्षण का दायित्व आता है। 7. संघ-धर्म : धार्मिक व्यवस्थाओं के रूप में श्रमण, श्रमणी, श्रावक और श्राविका से मिलकर संघ होता है। नन्दी-सूत्र में ऐसे परमोपकारी संघ की बड़ी महिमा बताई गई है। गृहस्थ-वर्ग इन संघों का आर्थिक पक्ष होता है। उसका कर्तव्य है कि वह संघ के लिए अपने संसाधनों का विवेकसम्मत नियोजन करें। संघ का दूसरा रूप गणों का समूह होता है। भगवान महावीर के समय में लिच्छवि, ज्ञातृ, विदेह आदि आठ गणराज्यों का एक वजिसंघ था, वैशाली जिसकी राजधानी थी। सदस्य अथवा नागरिक के रूप में ऐसे संघों के प्रति अपने कर्तव्यों का पालन करना संघ-धर्म है। 8. श्रुत-धर्म : श्रुत का पारम्परिक अर्थ है लिपिबद्ध आप्त-वचन / इन वचनों के प्रति अपनी प्रतिबद्धता व्यक्त करना श्रुत-धर्म है। व्यक्ति को ऐसे महान श्रुत में से उत्तम अर्थ की खोज करनी चाहिये ज्ञान का प्रचार-प्रसार और विस्तार करना, समाज से अंधविश्वासों और जड़ताओं को मिटाने के प्रयास श्रुत-धर्म के सोपान हैं। आज व्यक्ति से लेकर समष्टि तक सारा विकास ज्ञानाधारित हो गया है। जीवन की भौतिक उन्नति के लिए ज्ञान अत्यावश्यक उपादान हो गया है। सरकार शिक्षा के लिए अतिरिक्त कर लगाती है। भगवान महावीर में उसी ज्ञान को श्रेष्ठ कहा है जो व्यक्ति को अहिंसा के मंगल पथ से विचलित नहीं करें। (222)
SR No.004281
Book TitleJain Agamo ka Arthashastriya Mulyankan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDilip Dhing
PublisherPrakrit Bharti Academy
Publication Year2007
Total Pages408
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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