________________ आमुख सृष्टि के आदिकाल से ही मानव किसी न किसी आर्थिक गतिविधि में लिप्त रहा है। वस्तुतः प्राकृतिक साधनों के दोहन एवं इससे उपभोग्य वस्तुओं के उत्पादन की प्रक्रिया को ही आर्थिक गतिविधि कहा जाता है। फिर इससे जुड़े जितने भी उपक्रम हैं मानव उनका सम्पादन एवं संचालन इसलिए करता है कि उत्पादन एवं उपभोग के बीच की सभी व्यवस्थाएं सुस्पष्ट एवं सुनिश्चित की जा सके। आज के संदर्भ में इन सभी को प्रबन्धन (Management) की संज्ञा दी जाती है तथा प्रबन्धन से सम्बद्ध विशिष्ट ज्ञान-वित्तीन प्रबन्धन, उत्पादन प्रबन्धन, मानव संसाधन प्रबन्धन आदि - की श्रेणी में इन्हें रखा जाता है। आधुनिक अर्थशास्त्र के जनक एडमस्मिथ ने लगभग अढ़ाई शताब्दी पूर्व यह कहा था कि धन की उत्पत्ति के मूल में श्रम तथा श्रम विभाजन निहित हैं। उन्नीसवीं शताब्दी के अन्त में एल्फ्रेड मार्शल ने स्मिथ का समर्थन करते हुए यह कहा कि मानव कल्याण का स्तर धन के उपार्जन के साथ ही इसके उपयोग पर भी निर्भर करता है। जैन आगनों के अनुसार प्रथम तीर्थंकर भगवान ऋषभदेव ने लाखों वर्ष पूर्व मानव को कृषि की महत्ता से अवगत कराया तथा समाज के अलग-अलग वर्षों को उनकी क्षमता के अनुरूत कार्य करने हेतु संदेश दिया। यही बात 18वीं शताब्दी में जाकर फ्रांस के प्रकृतिवादियों के नेता डॉ. केने ने कही। मुद्दे की बात यह है कि श्रम के महत्व एवं श्रमविभाजन की जो चर्चा जैन तीर्थंकर भगवान ऋषभदेव ने लाखों वर्ष पूर्व ही और कालान्तर में जिसे जैन आचार्यों ने लिपिबद्ध किया, उसके विषय में यूरोप के अर्थशास्त्रियों ने पिछले तीन वर्षों में ही लिखा। .. आज अर्थशास्त्र में स्पष्ट किया जाता है कि धन आवश्यकताओं की पूर्ति में एक अनिवार्य उपादान है। यही बात सैंकड़ों वर्ष पूर्व पउमचरियं, वसुदेवहिंडी तथा जैन आचार्यों - हरिभद्रसूरि एवं जयवल्लभसूरि जी ने कहीं तथा बतलाया कि जिसके पास धन है वही व्यक्ति पंडित है, यशस्वी है तथा परोपकार करने में समर्थ है। परन्तु इसके साथ ही दो बातें जैन आचार्यों ने स्पष्टरूप से बताई। प्रथम, अर्थ तथा धन के उपार्जन में नीति (Ethics) एवं भाव-अहिंसा का आधार . अनिवार्य है। द्वितीय, यह भी कहा गया कि धन के तीन उपयोगों-दान, भोग एवं (xxii)