________________ / भट्टियाँ आज की भाँति ही नगर से दूर या नगर के बाहर हुआ करती थीं। जिससे नगर में प्रदूषण नहीं हो। दुकानें नगर के अन्दर तो होती ही थी, बाहर. राजपथों और चतुष्पथों पर भी होती थीं। बर्तनों पर राज्य द्वारा शुल्क या कर भी वसूला जाता था। इससे भाण्ड-उद्योग की महत्ता का पता चलता है। कुम्हारों का समाज में प्रतिष्ठापूर्ण स्थान था। उनकी कुम्भकारशालाओं में जैन श्रमण और अन्य भिक्षु ठहरा करते थे। उपर्युक्त वर्णित उद्योग-धन्धों के अलावा तत्कालीन समय में जो प्रमुख विधाएँ व्यवसाय का रूप ले चुकी थी उनका वर्णन भी यहाँ समीचीन है। . ' गृह निर्माण विद्या ग्रन्थों में भव्य भवनों के उल्लेख मिलते हैं। भवन-निर्माण और नगरस्थापना में लोग कुशल थे। आवश्यकचूर्णि और वसुदेवहिण्डी में शूपरिक के कोक्कास बढ़ई को एक कुशल शिल्पकार के रूप में बताया गया है। कलिंगराज के कहने पर उसने सात मंजिला सुन्दर भवन बनाया था। वह यन्त्र-विद्या का भी जानकार था। उसने यान्त्रिक कबूतर बनाये थे। वे कबूतर राजभवन में जाते और गंधशालि चुगकर लौट आते। राजा के आदेश पर गरूड़यंत्र भी बनाया। नगरों व भवनों के उल्लेख से स्पष्ट है, उस समय कुशल कारीगर व सिविल अभियन्ता थे जो राज प्रासाद, भवन, कुटीर, घर, गुफा, देवालय, बाजार, आश्रम, प्याऊ, सभामण्डप, भूगृह, पुष्करिणी, बावड़ी, स्तूप आदि बनाते थे। बृहत्कल्पभाष्य में तो वातानुकूलित घर बनाने का भी उल्लेख है।" लेकिन उस समय का वतानुकूलन विद्युतीय नहीं होता था। प्राकृतिक होता था, इसलिए स्वास्थ्यप्रद होता था। निस्संदेह, वास्तु उद्योग और गृहनिर्माण-विद्या आय का एक बहुत बढ़िया जरिया रही होगी। पत्थर उठाने वाले साधारण मजदूर से लेकर कारीगर, शिल्पकार, सजाकार आदि के रोजगार इस व्यवसाय से जुड़े हैं। काष्ठ-व्यवसाय ___ घर बनता है, तो लकड़ी की भी आवश्यकता होती है। इसके अलावा भी लकड़ी बहुत ही आर्थिक महत्त्व की वस्तु है। प्राचीन समय में घने जंगल थे और विभिन्न किस्मों की प्रचुर लकड़ी थी। भवनों के द्वार, खिड़कियाँ, गवाक्ष, सोपान, कंगूरे आदि काष्ठ-निर्मित होते थे। घर की वस्तुओं में खूटी, सन्दूक, खिलौने, ओखली, मूसल, पीढ़, पलंग, बाट आदि; वाहनों में गाड़ी, रथ, पालकी, नौका, (132)