________________ दिया था।". हाथी-घोड़े भी सोने-चाँदी के आभूषणों से अलंकृत किये जाते थे। रथ, सिंहासन आदि भी स्वर्ण-रजत और मणियों से विभूषित किये जाते थे। स्वर्णकारों और जौहरियों के व्यवसाय परस्पर अन्तर्सम्बंधित थे। लोग आभूषणों के बड़े शौकीन होते थे। अतिरिक्त आय स्वर्ण-रजत के आभूषणों में नियोजित कर दी जाती थी। स्वर्ण-रजत के सिक्के भी प्रचलित थे। कल्पसूत्र और ज्ञाताधर्मकथांग के स्फटिक के उपयोग का उल्लेख स्फटिक उद्योग की ओर संकेत है। आगम-युग का यह सारा वृत्तान्त तत्कालीन भारत के स्वर्ण-रजत और रत्नमणियों के व्यापक व्यवसाय का स्पष्ट निदर्शन है। भाण्ड उद्योग धातु के बर्तनों की भाँति मिट्टी के बर्तनों का खूब उपयोग होता था। मिट्टी के पात्र तथा अन्य वस्तुएँ बनाने का व्यवसाय आबादी के एक बहुत बड़े भाग के लिए रोजी-रोटी का माध्यम तथा अर्थव्यवस्था को प्रभावित करने वाला धन्धा था। उपासकदशांग में सकडालपुत्र का वर्णन आता है। वह तत्कालीन समय का भाण्ड-उद्योग करने वाला प्रसिद्ध उद्योगपति था। कुम्भकारं घड़े (घडए), मटके, कलश, परात, धान्य-पात्र, सुराही, करप (करा या करवा), वारए (वारक या गुल्लक), पिहडए (पिठर/मिट्टी की परात), अलिंजर, जंबूलए (सुरही), उट्टियाए (लम्बी गर्दन और बड़े पेट वाले मटके जो तेल, घी आदि भरने के काम आते हैं) आदि प्रकार और उपयोग के बर्तन तैयार करते थे। निशीथ भाष्य में तीन प्रकार के कलश बताये गये हैं - निष्पावकुट, तेलकुट व घृतकुटा - ग्रन्थों में विभिन्न पात्र तैयार करने की विधियों और उपकरणों के वर्णन * प्राप्त होते हैं। कुम्हार मिट्टी-पानी को मिलाकर, उसमें क्षार तथा करीश मिलाकर मृत्तिका पिण्ड तैयार करता था। ऐसे पिण्डों को चाक पर रख कर दण्ड और सूत्रादि की सहायता से विभिन्न आकारों के पात्र तैयार करता था। कुम्हार की पाँच प्रकार की शालाएँ होती थीं। जहाँ बर्तन बनाये जाते उसे 'कुम्भशाला', ईंधन रखने के स्थल को "ईंधनशाला", भट्टियों को 'पचनशाला' तथा निर्मित बर्तनों को एकत्रित व सुरक्षित रखने के स्थान को 'पणतशाला' कहा जाता था। तैयार बर्तनों को विभिन्न प्रकार के रंगों व चित्रों से सजाया जाता था।" (131)