SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 114
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ और अधिकारियों के वेतन पर राज्य का बहुत बड़ा भाग खर्च होता था। इससे राजकीय सेवाओं में पर्याप्त रोजगार के अवसरों का पता चलता है। अनुचर से लगाकर अधिकारी वर्ग तक राजकीय सेवाओं में होते थे। ___ न्याय प्रणाली का संचालन भी राज्य के पास था। स्थानांग सूत्र के अनुसार आन्तरिक शान्ति और सुरक्षा के लिए देश में उचित न्याय व्यवस्था थी। न्यायाधिकारियों पर भी राज्य का व्यय होता था। कहीं निष्पक्ष तो कहीं पक्षपातपूर्ण न्यायिक व्यवस्था के उदाहरण मिलते हैं। गलत दण्ड के कारण कई बार निर्दोष दण्डित हो जाते हैं और अपराधी साफ छूट जाते हैं। भगवान महावीर झूठी साक्षी देने का निषेध करते हैं सैन्य व्यवस्था सेना पर भरी भरकम खर्च उस समय भी किया जाता था। कभी नारियों के लिए तो कभी साम्राज्य-विस्तार के लिए या कभी किसी और कारण से राजाओं में युद्ध छिड़ जाता था। अधिकतर युद्ध तो प्रतिष्ठा और शक्ति-प्रदर्शन के लिए लड़े जाते थे। महज हार और हाथी के लिए ऐसा भयानक युद्ध लड़ा गया कि उसमें बडी संख्या में सैनिकों को अपनी जान की बाजी लगानी पड़ी। इसके लिए राज्य के पास चतुरंगिणी सेना होती थी - रथ, अश्व, हस्ति और पदाति सेना। स्थानांग में तो भैंसों की सेना का भी उल्लेख है। यहाँ तक कन्या को दहेज के रूप में भी इन वस्तुओं को दिया जाता था। सेना के इतने बड़े तामझाम, सैनिक, हाथी, घोड़े, रथ, शस्त्रास्त्र आदि पर बहुत राशि खर्च होती थी। अनेक प्रकार के युद्ध, अनेक प्रकार के अस्त्र-शस्त्र और अनेक प्रकार की व्यूह-रचनाएँ होती थीं। राजप्रश्नीय सूत्र के अनुसार कैकयार्द्ध नरेश प्रदेशी राज्य की आय का एक चौथाई सेना पर व्यय करता था। सम्राट खारवेल ने 1135 स्वर्ण-मुद्राएँ खर्च करके चतुरंगिणी सेना बनाई थी। सैन्य-व्यवस्था आत्म-रक्षा और राज्य की सुरक्षा के लिए होती थी। आक्रमण करने के लिए नहीं। भगवान महावीर युद्ध, आक्रमण और साम्राज्यवादी मनोवृत्ति को अनुचित ठहराते हैं। उनका दर्शन अयुद्ध और अनाक्रमण का है। न्याय-नीति पर चलने वाले व्रती नरेश मैत्री और विकास पर ध्यान केन्द्रित करते थे। राजा श्रेणिक और कूणिक के राज्य में सन्धिपाल होते थे, जिनका कार्य अन्य राजाओं से मैत्री स्थापित करना और उसे कायम रखना होता था। सार्थवाह व्यापारिक सम्बन्धों से मैत्री स्थापित करते थे। (85)
SR No.004281
Book TitleJain Agamo ka Arthashastriya Mulyankan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDilip Dhing
PublisherPrakrit Bharti Academy
Publication Year2007
Total Pages408
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy