________________ ENTERT S जीव विचार प्रकरण MARRIBERSTRESS सा है, इस पर दो सौ से अधिक प्रश्नोत्तर का खण्ड क्या बनेगा ! परंतु ज्यों ज्यों मैं लिखता गया, नये-नये विचार उद्भूत होते गये...बुद्धि के द्वार खुलते गये। प्रश्न बनते गये और समाधान मिलते गये। उन दिनों में मुझे ऐसा प्रतीत हो रहा था कि जहाँ मुझे दो सौ प्रश्न बनाने भी कठिन प्रतीत हो रहे थे, वहाँ प्रश्नोत्तर की संख्या नौ सौ तक पहुँच गयी, तो जरूर कोई न कोई इसमें राज छिपा है / कोई शक्ति मेरे मानस में ऊर्जा भर रही है और कार्य तेजी से हो रहा है। गुरू कृपा बिना कोई भी लक्ष्य मंजिल को तय नहीं कर पाता है। इस जटिल कार्य में मुझे गुरूदेव का दिशा निर्देश मिला तो समाधान भी उपलब्ध हुए। मैं कृतज्ञता को अभिव्यक्ति का स्वर दूं, यह उनके कृपा प्रसाद को तोलने का अनुचित प्रयास होगा। हर शिष्य का यही मनोभाव होता है कि जीवन के हर पथ पर सर्वदा-सर्वत्र गुरूदेव की शीतल छाँव मिलती रहे, उस मीठी शीतलता के तले अध्यात्म की यात्रा के नये आयाम उद्घाटित होते रहे / बस! मैं भी इसी छाँव की शीतलता की याचना प्रस्तुत करता हुआ अनुग्रह एवं आत्म प्रेम की कामना करता हूँ। परम आदरणीया बहिन म. साध्वी डॉ. विद्युत्प्रभाश्रीजी म.सा. एवं आदरणीया अग्रजा साध्वी डॉ. नीलांजनाश्रीजी म. ने आवश्यक संशोधन कर पुस्तक के मूल्य में अभिवृद्धि की है। लेखन यात्रा के हर पडाव पर उनके आत्मीय अवदान की सदैव कामना करता हूँ। कृतज्ञता ज्ञापन के इन क्षणों में परम आत्मीय विद्वद्वर्य श्री नरेन्द्रभाई कोरडिया का जिक्र किये बिना कैसे रह सकता हूँ! एक तरह से मेरी तत्त्व ज्ञान की यात्रा का शुभांरभ उनसे ही हुआ। उस यात्रा में प्रेरणा छिपी है बहिन म.सा. की। उन्होंने मेरी आँखों से बहते वियोग के आँसूओं को अनदेखा कर आत्मीय नरेन्द्रभाई के पास रखा। वहाँ से शुरू हुई मेरी तत्त्व-श्रुत की साधना और उपासना आज इस मुकाम तक पहुँची है। पुस्तक लेखन के प्रारंभ में ही मैंने उन्हें कह दिया था कि लेखन तो हो जायेगा पर संपादन तो आपको ही करना है। तो उन्होंने मुस्कुराते हुए कहा- मेरी ओर से आप