________________ 84 पाइअविनाणकहा-१ दुप्पडियाराणि जणयाणि कहमवमन्नेमि त्ति चिंतिऊण विसज्जिओ सुजसो” पव्वइओ विहिणा / विसुद्धपरिणामो नाणचरित्ताराहणसारो विहरइ / इयरो वि जणएहिं अणिच्छंतो वि कारिओ तह वि य कुलकन्नयाए पाणिग्गहणं / पवत्तो किसिकम्माइववसाए गिहवावारपवत्तो वि वयग्गहणेक्कचित्तो एगभत्तेहिं कालं गमेइ / उवरएसु वि जणएसु दक्खिन्नसारयाए पइदिणं भज्जमापुच्छइ / सावि दीणाणणा रोवइ चेव, न पुण विसज्जेइ / तओ सो तीए पडिबोहणोवायमलहंतो दुक्खं चिट्टेइ / ___ इओ अ सुजससाहू विविहतवोकम्मतणुइयसरीरो ओहिणा उवलद्धजेट्ठभाइपडिबोहाऽवसरो तस्स गिहं समागओ / भाउज्जायाए पञ्चभिन्नाओ, सबहुमाणं वंदिओ य / ठिओ तीए दंसिए उचिओवस्सए / 'कहिं घरसामिओ' त्ति ? पुट्ठाए तीए सिटुं-'कम्मं काउं छेत्तं गओ' त्ति / भोयणावसरे पडिलाभिओ तीए साहू उचिएणं भत्तपाणेणं, भुत्तो विहिणा / नागओ जसो त्ति भत्तं गहाय पत्थिया पडिनियत्ता य रुवंती / सुजसेण एसा पुच्छिआ-'किमधिई करेसि ?' सा भणेइ-“स ते भाया एगभत्तेहिं चिट्ठइ, छुहिओ वट्टइ, अंतरा य अपारा गिरिनई वहइ, तेण भत्तं नेउं न तरामि त्ति अधिइकारणं महंतं ममं" त्ति / साहुणा भणियं-"गच्छ तुमं, नई भणाहि-मम देवरस्स बारस वरिसा पव्वइयस्स जाया, जइ तेण दिवसं पि न भुत्तं, ता मे मग्गं देहि महानइ ! त्ति वुत्ते सा नई ते मग्गं दाहि" त्ति / एवं वुत्ताए तीए चिंतिअं-“मम पञ्चक्खमेव अणेण भुत्तं, कहं न भुत्तं नाम ?, अहवा न जुत्तं गुरुवयणविरुद्धचिंतणं, जमेस भणइ तं चेव करेमि " त्ति संपहारिऊण गया एसा / तहेव भणिए दिन्नो मग्गो नईए / 'कहमागयासि' ? पुच्छिया भत्तुणा / तीए वि साहिओ सुजसागमणाइवुत्तंतो / ____ भुत्तुत्तरे विसज्जिआ जसेण भणइ कहं वञ्चामि ?, अज्जावि अपारा चेव नई / जसेण वुत्तं-"संपयमेवं भणिज्जासि 'जइ भत्तुणाऽहमेक्कसिं पि न भुत्तम्हि' ता महानइ ! मे मग्गं पयच्छाहि" / सुट्टयरं विम्हिया तहेव भणिए लद्धमग्गा सुहेण पत्ता सगिहं / वंदिऊण पुच्छिओ साहू-'भयवं ! को एत्थ परमत्थो' त्ति / मुणी भणेइ-“भद्दे ! जइ रसगिद्धीए भुज्जइ तओ भुत्तं भवइ / जं पुण संजम-जत्ताहेउं फासुयमेसणिजं तं भुत्तं न गणिज्जइ / अओ चेवागमे भणियं-'अणवज्जाहाराणं साहूणं निच्चमेव उववासो' त्ति, एवं तुह पइणो वि बंभचेरमणोरहसहियस्स तुहाणुरोहेण कयभोगस्स अभोगो चेव" / जओ उत्तं __ भवेच्छा जस्स विच्छिन्ना, पउत्ती कम्मभावया / रई तस्स विरत्तस्स, सव्वत्थ सुहवेजओ / / 2 / / एवमायन्निऊण संविग्गाए तीए चिंतियं-“अहो ! एस जसओ महाणुभावदक्खिन्नमहोयही संसारविरत्तमणो वि चिरं मए धम्मचरणाओ खलिओ, समज्जिअं महंतं धम्मंतराइयं / ता संपयं जुत्तमेएण चेव समं समणत्तमणुचरिउं"। एवं चेव नेहस्स फलं ति भाविंतीए संपत्तो जसो वि, साहुं वंदिऊण निसन्नो नाइदूरे / साहुणा दोण्हंपि सुद्धदेसणा कया / पडिबुद्धाणि पव्वइयाणि / कालेण पत्ताणि सुरलोगं ति / एवमेस जसो इच्छामेत्तेणावि चरणाविसएण पावारंभेण न लित्तो ति / / 1. सकृदपि / /