________________ मुनि निरंजनविजयसंयोजित धिर रोहणगिरि दीनदारियव्रणरोहणम् / दत्ते हा दैवमित्युक्ते रत्नान्यथिंजनाय यः // 107 // अर्थात् जो रोहणाचल याचक जन को हा दैव ! हा दैव ! यह दीनवचन बुलवाकर रन देता है उस दीनदारिद्य स्वरूप आघातवाले रोहणगिरि को धिक्कार हो। इस उपर्युक्त श्लोक को कहकर महा मूल्यवान् रत्न को खान में फेंक कर विक्रमादित्य अवधूत वेषमें अनेक प्रकार के आश्चर्य जनक देश तथा अच्छे 2 फलफूल युक्त वन आदि को देखते हुए भट्टमात्र के साथ 2 विदेशमें घूमने लगा। C. C CORN KIWAND Blace codaco CONTAR Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org