________________ विक्रम चरित्र . अर्थात् तीर्थ-स्नान, धर्म और देव के विषय में कदाचित् पण्डितों में विवाद या मतभेद हो सकता है किन्तु माता की सेवा में तथा भक्तिमें किसी भी धर्म में मतभेद नहीं है / सारांश यह कि मातृ-सेवा को सब धर्मवाले श्रेष्ठ मानते हैं / और भी कहा : गंगास्नानेन यत् पुण्यं, नर्मदादर्शनेन च / तापीस्मरणमात्रेण, तन्मातुः पदवन्दनात् // 104 // अर्थात् गंगा स्नान से, नर्मदा के दर्शन से और तापी नदी के स्मरण से जो पुण्य होता है उतना ही पुण्य माता की चरण सेवा से होता है। आदिगुणेषु विनयः, सर्वशास्त्रेषु मातृका / सृष्टौ जलं दया धर्मे, तीर्थेषु जननी मता / 105 // अर्थात् सब गुणों में विनय, सब शास्त्रों में मातृका पद*, सृष्टि में जल, धर्म में दया श्रेष्ठ है वैसे ही तीर्थो में माता श्रेष्ठ मानी गई है। ___ इत्यादि बहुत सोचकर अवधूत-विक्रमादित्य ने प्राप्त किये रत्न को खान में फेंकते हुए यह श्लोक कहाः-- ____ * अ, आ आदि 14 स्वर, क, ख आदि 33 व्यञ्जन ये वर्ण मातृकापद कहे जाते है, अथवा "उब्वेई वा-विगमेइ वा धूवेइ वा” इस त्रीपदीको भी मातृका पद कहते हैं। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org