________________ मुनि निरंजनविजयसंयोजित इस प्रकार अनेकं के अधीन में रहने वाले धनको विकार है। . सुकोमल आसन या हाथी-घोडों पर चढ़ने वाला स्तुल्य नहीं होसकता। क्यों कि हाथी पर तो उसका महावत भी बैठता है। अगर हाथी पर बैठने मात्र से कोई मनुष्य मोटाई को प्राप्त करले तो फिर महावत को भी महान् पुरुष कहना चाहिये / हम उसे क्यों "महावत" इस साधारण शब्द से सम्बोधित करते हैं ? / ताम्बूल खाने मात्र से भी कोई स्तुत्य नहीं कहा जासकता। नट और विट भी तो सदा ताम्बूल खाते है फिर भी नीच ही गिने जाते हैं। अधिक भोजन करने से भी कोई स्तुत्य नहीं होसकता कारण कि हाथी आदि मूर्ख पशु भी तो अधिक भोजन करते है। इसी प्रकार बड़े महल में रहने मात्र से कोई प्रशंसनीय महान् पुरुष नहीं कहा जासकता। अगर ऐसा हो तो चिडिया, कबुतर आदि पक्षी भी महल में रहने से मोटाई को प्राप्त होने चाहिये / वास्तव में संसार में स्तुत्य वही है, जो कीसी भी प्राणी को उस की अभिलषित वस्तु देता है।' नया संवत्सर चलाना इस प्रकार सोचकर राजा विक्रमादित्यने सुवर्ण, चांदी, मणि विगैरहका मनो इच्छित दान देने लगा और भारतवर्षकी सारी प्रजा को : आरोहन्ति सुखासनान्यपटवो नागान् हयान् तज्जुषस्ताम्बूलाापभुञ्जते नटविटा खादन्ति हस्त्यादयः / प्रासादे चटकादयो निवसन्त्येते न पात्रं स्तुतेः / स स्तुत्यो भुवने प्रयच्छति कृती लोकाय यः कामितम् // 279 // Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org