________________ मुनि निरंजनविजयसंयोजित वीष्ठा में रहे हुए कीट को तथा स्वर्ग में रहे हुए इन्द्र को मृत्यु की और जीने की अभिलाषा समान ही रहा करती है। प्रकृति का नियम है कि नीच में नीच योनि में उत्पन्न होने पर मी प्राणी मरने की इच्छा कभी नहीं रखता / इस लिये अभयदान ही सब दानों में उत्तम है। कहा भी है कि:---- अभय दान की प्रशंसा ___ "श्रीकृष्णने युधिष्ठिर को धर्मोपदेश देते कहा कि मेरु पर्वत के समान सुवर्ण का दान कर अथवा समस्त पृथिवी का दान कर परन्तु वह एक प्राणी के जीवन को बचाने तुल्य नहीं है / " x सुवर्ण, गाय, पृथिवी आदि का दान करने वाले तो इस भूमि में अनेक पडे हैं / परंतु प्राणी को अभयदान देने वाले विरले ही हैं / * रूपवती का चोर को उपदेश रूपवतीने सदय हो कर चोर को कहा कि 'हम लोगोंने सात दिन तक तुम्हारी रक्षा की परंतु प्रातःकाल में तुम्हारी मृत्यु निश्चित है। अतः तुम्हें मृयु ले कौन बचायेगा ? इस लिये अनेक दुःखो को देनेवाला चोरी का धंधा तुम शीव्र छोड दो, चौर्यरूपी पाप के वृक्ष का x यो दद्यात् काञ्चनं मेरुं कृत्स्नां चैव वसुन्धराम् / एकस्य जीवितं दद्यान्न च तुल्यं युधिष्ठिर ! // 14 // * हेमधेनुधरादीनां दातारः सुलभा भुवि। दुर्लभः पुरुषो लोके यः प्राणिप्वभयप्रदः // 95 // Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org