________________ 388 विक्रम चरित्र इस लोक में वध और बंधन आदि फल मिलते हैं तथा परलोक में नरक का कष्ट भोगना पड़ता है। भाग्यहीनता, दासपणा, अंगच्छेदन, दरिद्रता, ये सब चोरी का ही फल प्राणी को मिलता है। अत एव यह समझकर मनुष्य को चाहिये की सर्वथा चोरी न करे।' चोरी का त्याग और मृत्यु से बचाव रूपवती की इस प्रकार की बात सुनकर वह चोर पापसे डरकर कहने लगा कि 'आजसे में कदापि तृण मात्र की भी चोरी नहीं करूँगा।" ___चोरकी यह बात सुन कर रानी रूपवती राजा के समीफ जाकर कहने लगी कि 'हे राजन् ! यह चोर आज से कभी भी चोरी नहीं करने की प्रतिज्ञा कर रहा है। इस लिये प्रसन्न होकर इसे छोड़ दीजिये।' राजाने पट्टरानी की यह बात सुन कर चोर को छोड़ दिया। मृत्यु के भयसे रहित होने के कारण अब वह चोर आनन्दित व शरीरसे हृष्टपुष्ट हो गया / इसने जिन्दगीभर चोरी न करने की प्रतिज्ञा लेली / इसप्रकार तृतीय व्रत को पालन करके वह चोर मृत्यु बाद स्वर्ग में दिव्य शरीर पाकर सुख भोगने लगा। क्यों कि तृतीय व्रत के पालन करने से राज्य, सुन्दर सम्पत्ति, भोग, सत्कुल में जन्म, सुन्दर रूप तथा अन्त में देवत्त्व की प्राप्ति अवश्य होती है। परोपकार का बदला इस प्रकार वह चोर स्वर्ग में जाकर अपने पूर्व जन्म को स्मरण Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org