________________ विक्रम चरित्र धारण करना व्यर्थ है।"x इस के बाद रानी रूपवती राजा के समीप जाकर कहने लगी कि 'हे राजन् ! यह चोर एक दिन के लिये मुझे सुपर्द कीजिये। जिससे अन्नपान आदि से इस को संतुष्ट करें और कल्याण तथा सुख देने वाली धर्मकथा इसे सुनावें / क्यों कि-छास से मख्खन, कादव से कमल, समुद्र से अमृत, वंश से मुक्तामणि निकलते हैं उसी तरह बुद्धिमानमनुष्य मनुष्य जन्म से ही धर्मरूप सार वस्तु को ग्रहण करता है। राजा से इस प्रकार कहकर रूपवती हर्षपूर्वक उस चोर को महल में ले आई और स्नान आदि करखाकर दया और सद्भाव पूर्वक उत्तम अन्नपानादि के द्वारा उस चोर का सम्मान किया / इस प्रकार पृथक् पृथक् एक एक दिन अन्य छै रानियों ने भी भोजनादि द्वारा उस चोर का सत्कार किया / परंतु भय के कारण अन्नादि के द्वारा सत्कार होने पर भी वह चोर अत्यन्त कृश होने लगा। उसे अत्यन्त दुर्बल देखकर दयाई होनेसे रानी रूपवतीने पूछा कि 'हे चोर ! हम लोगों ने सात दिन तक तुम्हारी अच्छे ढंगसे रक्षा की तो भी तुम दुर्बल क्यों हो गये हों ? चोरने कहा कि मैं मृत्यु के भय से प्रतिदिन दुर्बल होता जा रहा हूँ / चोर की बात सुन कर रानी विचारने लगी: श्यस्य चित्तं द्रवीभूतं कृपया सर्वजंतुषु / . वस्य ज्ञानं च मोक्षश्च किं जटामस्मचीवरः ? // 8 // Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org