________________ मुनि निरंजनविजयसंयोजित 381 ____मोक्ष चाहने वाले को इन्हीं का ध्यान तथा उपासना करन चहिये / जो देव स्त्री. शत्र, माला आदि राग के चिह्नों से युक्त हैं तथा निग्रह तथा अनुग्रह करने वाले हैं वे मुक्ति नहीं दे सकते हैं / जो देव नाट्य, अट्टहास, संगीत आदि उपाधियों से परिपूर्ण हैं वे शरणागत प्राणियों को शान्ति केसे दे सकते हैं / जे महाव्रतधारी, धीर, भिक्षामात्र से जीने वाले, सामायिक में रहने वाले तथा धर्मोपदंशक हैं वेही सज्जनों से मान्य गुरु हैं / परंतु जो सभी वस्तुओंकी अभिलाषा करने वाले है, सर्व भक्षी है, परिग्रह से युक्त है. ब्रह्मचर्य व्रत को पालने वाले नहीं है, मिथ्या संदेश देने वाले हैं वे वास्तव में गुरु नहीं हैं / जो संग्रह और पापादि लीला में लीन है वे औरों को कैस तार सकते हैं ? जैसे जो स्वयं दन्द्रि हैं वह अन्य को बनी कैसे बनासकता है। धनुष, दंड, चक्र, तलवार, त्रिशुल आदि शस्त्रां के धारण करने वाले ऐसे हिंसक दवों को लोग देवता बुद्धिसे पूजते हैं यह बड़े कष्ट की बात है। “जहा गंगा नहीं. सर्प नहीं, मस्तक-खोपरी की माला नहीं / जहाँ चन्द्र की कला नहीं. पार्वतीजी नहीं, जटा और भन्म नहीं तथा अन्य कोई भी वस्नु नहीं इस प्रकार के पुरातन मुनियों से अनुभूत ईश्वर के रूप की उपासना हम लोग करते हैं / "* * न स्वर्धनी न फणिनो न कपालदाम, नेन्दोः कला न गिरिजा न जटा न भस्म / यत्रान्यदेव च न किंचिदुपास्महे तद्, रूपं पुराणमुनिशीलितमीश्वरस्य // 50 // Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org