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________________ 382 विक्रम चरित्र .. इस प्रकार के उपयुक्त परमेश्वर ही योगियों के सेवनीय हैं / राज्य-सुख तथा उपभोग के लोभी लोग ही अन्य नवीन देवों की सेवा करते हैं / मिमांसा में भी कहा है कि:इतर शास्त्रों में वीतराग का स्वरूप "वीतराग को स्मरण करता हुआ योगी वीतराग हो जाता है तथा सराग का ध्यान करने वाला योगी सराग हो जाता है। इस में कोई सन्देह नहीं। " + - क्यों कि यंत्रवाहक जिस जिंस भाव से युक्त होता है उस भाव से ही तन्मयता को प्राप्त करता है। जैसे दर्पण में जैसा भाव करेंगे वैसा ही देखेंगे। . श्रीसिद्धसेन दिवाकर सूरीश्वरजी से कही गई इस प्रकार की धर्मकथा को सुन कर राजाने शीघ्र ही मिथ्यात्व का त्याग किया और जैन धर्मपर श्रद्धावान् होकर महाकाल मंदिर में जिनश्वर श्री पार्श्वनाथ की प्रतिमाको पुनः स्थापन कराया। बाद में आदर पूर्वक इनकी पूजा करने लगा। पूजारियों को एक हजार गाँवोंका दान दिया और श्रावकों के बारह व्रतों से युक्त सम्यक्त्व का स्वीकार किया / धर्मोपदेश द्वारा सूरिजी की दान धर्म की पुष्टि किसी एक दिन सिद्धसेन दिवाकर सूरिजी ने कहा कि 'हे राजन् ! जिनेश्वरोने लक्ष्मीका दान करना ही सबसे अच्छा धर्म कार्य कहा है। + वीतरागं स्मरन् योगी वीतरागत्वमश्नुते। सरागं ध्यायतस्तस्य सरागत्वं तु निश्चितम् // 52 // Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004265
Book TitleMaharaj Vikram
Original Sutra AuthorShubhshil Gani
AuthorNiranjanvijay
PublisherNemi Amrut Khanti Niranjan Granthmala
Publication Year
Total Pages516
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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