________________ मुनि निरंजनविजयसंयोजित मेरी बात ही नहीं मानती। माता, पिता, पुत्री, पुत्र, मित्र, सज्जन, सेवक ये सब स्वार्थ सिद्धि के लिये ही एकत्र होकर हर्ष पूर्वक मिलते रहते हैं।' विक्रमचरित्र अपने को दिये हुए देशों का राजा बन चुकाथा / उसने सब राजा व सामन्तों को सूचित किया कि " आप लोग आकर तुरंत ही मेरी आज्ञा का पालन करो। मुझे राजा ने अपनी पुत्री के साथ आप लोगों का देश भी सुपुर्द किया है। वैद्य होकर भी मैं भाग्यसंयोग से आप लोगों का स्वामी बन चुका हूँ। अतः आप लोग यहाँ आकर आदर पूर्वक मेरी सेवा करें। अन्यथा मैं शीव्र ही आप लोगों को निग्रह करूँगा।' यह बात जान कर सब सामन्तों ने मिल कर यह विचार किया कि अब तक हम लोगों ने उत्तम कुल में उत्पन्न तथा अत्यन्त बलशाली राजा की भी थोडी सी सेवा नहीं की। वेही हमलोग अधम जाति में उत्पन्न तथा अज्ञात कुलशालवाले इस वैद्य की किस प्रकार सेवा करेंगे। यह ठीक ही कहा है कि “दूसरे से प्रतिष्ठा प्राप्त कर के प्रायः नीच व्यक्ति भी अत्यन्त दुःसह हो जाता है। जैसे सूर्य जितना तप्त नहीं होता, बालुका-रेती का समूह उससे भी अधिक तप्त हो जाता है।"+ नीच व्यक्ति उच्चपद प्राप्त करके अपने मन में समाता ही नहीं + अन्यस्मादपि लब्धोष्मा नीचः प्रायेण दुस्सहो भवति। . तादृग् न दहति रविरिह दहति यथा वालुकानिकरः // 227 // Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org