________________ 320 . विक्रम चरित्र कार्य एवं धर्म भावना से युक्त दानादि शुभ कृत्य में प्रवृत्त रह कर प्रभु भजन पूजन आदि में यथा शक्ति प्रयत्न शील रहना चाहिये, जिससे अपना पुण्य बल सदा बढता रहे / पुण्य बढने से सब तरह का अनुकुल वातावरण उत्पन्न होता है, जैसे महाराजा विक्रमादित्य और विक्रमचरित्र को तरह तरहकी सम्पतियाँ स्वयं आकर मिलती रहती हैं। वैसे ही पुण्य करके सुखके भोगने वाले सब बनो यह ही अभिलाषा / तपागच्छीय-नानाग्रन्थरचयिता-कृष्णसरस्वतीबिरुद धारक-परमपूज्य-आचार्यश्री-मुनिसुंदरसूरी___श्वरशिष्य-गणिवर्य-श्रीशुभशीलगणि विरचिते श्रीविक्रमचरिते. पञ्चमः सर्गः समाप्तः नानातीर्थोद्धारक-आबालब्रह्मचारि-शासनसम्राटूश्रीमद्विजयनेमिसूरीश्वरशिष्य-कविरत्न-शास्त्रविशारद-पीयूषपाणि-जैनाचार्य-श्रीमद्विजयामृतसूरीश्वरस्य तृतीयशिष्यः वैयावच्चकरणदक्षमुनिश्रीखान्तिविजयस्तस्य शिष्यमुनिनिरंजनविजयेन कृतो विक्रमचरितस्य हीन्दीभाषायां भावानु वादः, तस्य च पञ्चमः सर्गः समाप्तः . * Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org