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________________ मुनि निरंजनविजयसंयोजित 251 योगीराज ने उत्तर दिया कि-'राजा, देवता, गुरु, उपाध्यायशिक्षक और वैद्य-इन सब के पास रिक्त-खाली हस्त नहीं जाना चाहिये। फल से ही फल का आदेश करना चाहिये। मनुष्यों का किया हुआ उपकार कल्याण कारक होता है, परन्तु सज्जन व्यक्ति-सात्त्विक प्रार्थना को भंग नहीं करते। अपने पेट तथा परिवार के भरण पोषण के व्यापार में अत्यन्त अभिरुचि रखने वाले हजारों क्षुद्र व्यक्ति संसार में वर्तमान हैं, परन्तु परार्थ ही जिसका स्वार्थ है, ऐसा जो सज्जनों का अग्रणी व्यक्ति है, वही उत्तम पुरुष है। जैसे वडवानल कभी नहीं भरने वाले अपने पेट को भरने के लिये समुद्र का जल पीता है,. किन्तु मेघ उष्णता से संतप्त संसार के सन्ताप को नाश करने के लिये समुद्र का जल पीता है / लक्ष्मी स्वभाव से ही चञ्चला है, जीवन लक्ष्मी से भी अधिक चञ्चल है और भाव तो जीवन से भी अत्यधिक चश्चल होता है / अतः उपकार करने में क्यों विलम्ब किया जाय ? ' योगीराज की यह बात सुन कर राजा विक्रमादित्य ने कहा कि 'आपको क्या प्रयोजन है ? वह मुझे कहो।' तब योगीराज ने कहा कि 'हे राजन् ! प्राणियों का साहस से अत्यन्त कठिन कार्य भी शीघ्र सिद्ध होजाता है। तथा उससे अत्यन्त सुख होता है / क्योंकि श्रीरामचन्द्र को लंका जीतना था, तथा पाँव से ही समुद्र पार करना था, पुलस्त्य ऋषि के वंश में उत्पन्न रावण जैसे बलवान् व्यक्ति के साथ उनकी शत्रुता थी और युद्ध भूमि में लड़ने वाली सेना भी बन्दरों की थी, फिर भी श्री रामचन्द्र ने समस्त Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004265
Book TitleMaharaj Vikram
Original Sutra AuthorShubhshil Gani
AuthorNiranjanvijay
PublisherNemi Amrut Khanti Niranjan Granthmala
Publication Year
Total Pages516
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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