________________ मुनि निरंजनविजयसंयोजित प्रकार के चरित्र करने के कारण उसका 'विक्रम-चरित्र' ऐसा नाम राजसभामें प्रकाशित किया। पुत्र के आगमन से हर्षित होकर राजा ने उस वेश्या को आठ नगर पुरस्कार में देकर उस वेश्या को सम्मान पूर्वक वहाँ से बिदा किया। इस वेश्या को राजा से इस प्रकार सम्मानित होते देख कर वे चारों प्रमुख वेश्यायें उदास मुख करके अपने मन में अत्यन्त दुःखी हुई। इसके बाद राजा ने उस विक्रमचरित्र से पूछा कि 'हे पुत्र ! तुमने इस नगर में इस प्रकार चोरी क्यों की है ? प्रतिष्ठानपुरसे आकर सीधा मुझे क्यों नहीं मिला ? .. तब विक्रमचरित्र कहने लगा कि "आपने कपट करके मेरी माता से विवाह किया तथा छल से उस को छोड़ कर आप यहाँ चले आये थे। इसीलिये मैंने राजमहल से छल पूर्वक वस्त्राभूषणादि ले लिये तथा कौतुक से कोटवाल आदि को हैरान किया / चंडिका देवी ने प्रसन्न होकर मुझे विद्या प्रदान की है। वह विद्या इस के आगे भी अवधि पर्यन्त रहेगी / विद्यायें अनेक हैं। एक जीव के लिये वह संख्या के योग्य नहीं हैं, एक विद्या का भी यदि नियम पूर्वक उपयोग किया जाय तो वह सर्वत्र उपयुक्त होती है। मैंने देवी से दिये हुए विद्याबल से तथा अपनी बुद्धि से और पुण्य उदय से इतना विचित्र प्रकार का कौतुक किया है। आपका पुत्र आप से सवा गुना सिद्ध हो तब आप भी खुश हों, यही साबित करने के लिये मैं सीधा आप के पास नहीं आया / " __ पाठक,गण ! आप लोग इस विक्रमचरित्र का विचित्र चरित्र Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org