________________ 235 mmmmmmmm मुनि निरंजनविजयसंयोजित द्वार खोलो। मैंने कहा कि तुम राजा नहीं, किन्तु दुष्ट बुद्धिवाले चोर हो। पुनः यदि ऐसा बोलोगे तो मैं पत्थर से तुम्हारा मस्तक तोड़ दूंगा। मेरे ऐसा कहने पर वह सन्तोष करके कहीं चला गया अथवा बाहर द्वार पर बैठा है, यह मैं नहीं जानता।' नगर बाहर राजा का मिलना ___ तब मंत्री लोग शीघ्र ही द्वार खुलवा कर बाहर गये। वहाँ शीत से शरीर को संकुचित किये हुए राजा को देखकर शीघ्र ही राजा के वस्त्रादि मंगवाये और पूछा कि 'हे राजन् ! आज आप की यह दुर्दशा कैसे हुई ?' राजा विक्रमादित्य ने अपने शरीर को ढकते हुए रात्रि में हुआ सब वृत्तान्त सविस्तर कह सुनाया। राजा के सब वृत्तान्त कहने पर वह द्वारपाल राजा के चरणों में गिर पड़ा और कहने लगा कि 'रात्रि में मुझ से बहुत बड़ा अपराध हुआ है, उसे दया कर के क्षमा करें। माता पिता तथा राजा प्रसन्न होते हैं तो अपने सन्तान तथा सेवक के अयोग्य कार्य को भी अच्छा ही समझते हैं। जो जिस के हृदय में बसा हुआ है उसे वह बहुत सुन्दर स्वभाव वाला समझता है। जैसे व्याघ्र की स्त्री अपने बच्चों को अत्यन्त कल्याण कारी सौम्य और सुन्दर समझती है।' . द्वारपाल की प्रार्थना सुनकर राजा विक्रमादित्य ने कहा कि' हे द्वारपाल इस में तेरा कुछ भी दोष नहीं है। किन्तु इस समय यह सब मुझे मेरे अदृष्ट के दोष से हुआ है। उत्तम व्यक्ति अपने किये कर्म को ही दोष देते हैं अन्यों को नहीं / श्वान, पत्थर से मारे Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org