________________ 222 विक्रम चरित्र ___जब राजा परिवार सहित वहाँ पहुँचा तो उस की विचित्र स्थिति देख कर बोला कि 'हे धतकार कौटिक ! तुम अब जल से निकल कर बाहर आओ। तुम्हारी प्रतिज्ञा पूरी हो गई।' राजा की बात सुन कर कौटिक बोलाः-“हे राजन् ! कुछ देर ठहरिये / मैं चोर की स्थिति जानकर आप लोगों से सब बातें कहूँगा।" इस प्रकार पुनः पुनः कहता हुआ द्यूतकार कौटिक जब दो घड़ी दिन बीत गया तब जल से बाहर निकला, परन्तु चोर का कुछ भी वृत्तान्त उसे ज्ञात नहीं हुआ। जब वह जल से बाहर आया तब राजाने पूछा कि 'तुम्हारी ऐसी दुर्दशा किस ने की ? ' तब धतकार कौटिक ने उत्तर दिया कि 'चण्डिका देवी के मंदिर में एक संन्यासी है, उस के कथनानुसार ही मैंने यह सब किया है।' ___ तत्पश्चात् चण्डिका देवी के मन्दिर में देखने पर वहा संन्यासी आदि कोई नहीं मिला, तो कौटिक से कहा कि निश्चय ही तेरी यह सब दशा रात्रि में उस चोर ने ही की है। इसलिये तुम इस समय अपने मन में कुछ भी दुःख मत करो / जिस चोर ने मेरे जैसे व्यक्तियों को भी संकट में डाल दिया है वहाँ तुम्हारी क्या गणना ? इसलिये तुम्हारा इस में कुछ भी दोष नहीं है। क्यों कि देवता भी भाग्य से अनेक प्रकार की दशा प्राप्त करते हैं / भाग्य के फल से कोई भी व्यक्ति नहीं छूट सकता / जिस रावण का नगर त्रिकूट पर्वत पर था तथा नगर के चतुर्दिक समुद्र ही परिखा-खाई थी, युद्ध करने वाले राक्षस लोग सेना में थे, कुबेर ही जिस का खजानची था तथा जिसके मुख में Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org