________________ मुनि निरंजनविजयसंयोजित 219 किये भी रात्रि में ही घर लौट आते हैं। मैं द्यूतकार कौटिक से बड़ी सरलता से प्रत्यक्ष ही मिलंगा तथा उसका कुछ चिह्न लेकर आऊँगा / ' _ फिर वह चोर अत्यन्त प्रसन्न होकर कौटिक को देखने की इच्छा से वेश्या के घर से निर्भय होकर निकला / अदृश्य होकर समस्त नगर में भ्रमण करता हुआ चतुष्पथ में आया और वहाँ पर कौटिक को देखा। वह चोर रात्रि में बड़ी बड़ी लम्बी जटा बनाकर तथा एक संन्यासी का रूप धारण करके सरोवर के तट पर स्थित चण्डिका देवी के मन्दिर में आकर बैठ गया। इधर धतकार कौटिक भी नगर में चारों तरफ भ्रमण करता हुआ चण्डिका देवी के मन्दिर में आया / मन्दिर में संन्यासी को बैठा हुआ देखकर उस को प्रणाम किया और बोला, 'हे योगी ! इतनी हम्बी तथा ऐसी मनोहर जटा तुम्हारे सिर पर कैसे हो गई ? क्या तुम नगर में सतत चोरी करने वाले चोर का स्थान जानते हो ? क्योकि रोगियों का वैद्य मित्र होता है, राजाओं का खुशामत वाले मित्र होता है। दुःख से संतप्त लोगों के मुनि लोग मित्र होते हैं, निर्धन मनुष्यों का ज्योतिषी मित्र होता है।' - कौटिक की ये सब बाते सुन कर वह संन्यासी बोला कि 'हे भद्र ! यदि तुम अपने मस्तक का मुंडन कराकर इस चूर्ण का मस्तक में लेप कर के मैं जो मंत्र देता हूँ, उस का कण्ठ पर्यन्त जल में स्थित हो कर दो घडी दिन बीते वहाँ तक जप करो और मैं यहाँ बैठ कर विधिपूर्वक ध्यान Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org