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________________ 228 विक्रम चरित्र द्यूतकार कौटिक की प्रतिज्ञा मंत्रियों की यह बात सुन कर कौटिक नामका घतकार बोला:" हे राजन् ! चोर को पकड़ने के लिये मुझ को आज ही आदेश दो तथा आपके जितने सेवक हैं वे लोग सब अपने अपने स्थान पर रहे। आपकी आज्ञा से अनायास ही मैं उस चोर को पकड़ लूँगा।" कौटिक की यह बात सुन कर राजाने कहा कि 'हे कौटिक! तुम ऐसी बात न करो, क्यों कि बड़े बड़े बलवान् देवताओं से भी वह चोर दुर्ग्राह्य है।' राजा के ऐसा कहने पर कौटिक बोला कि 'हे राजन् ! मैं आपका धतकार सेवक हूँ। आपकी प्रसन्नता से वह चोर शीघ्र ही मेरे वश में आजायगा / राजा के आश्रय ले विद्वान् उन्नति को प्राप्त होता है, मल्याचल पर्वत को प्राप्त करके चन्दन का वृक्ष बढ़ता है, अत्यन्त धवल आतपत्र, बड़े बड़े सुन्दर घोड़े और मदोन्मत्त. हस्ती राजा के प्रसन्न होने से मिलते हैं। यदि मैं चोर को नहीं पा तो मेरा मस्तक भद्र करके तथा गुझको गो पर चढ़कर अपने सेवको के द्वारा नगर में घुमाना।' कौटिक का आग्रह देख कर राज ने 'एवम लु' कहा। तब द्यतकार कौटिक अपने सेवकों से युक्त होकर चोर को पकड़ने के लिये चला। . वेश्या की यह बात सुन कर चोर बोला कि 'मैं नगर में जाऊँगा और रात्रि में लौटूंगा। चोर लोग धन प्राप्त कर के तथा चिना प्राप्त Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004265
Book TitleMaharaj Vikram
Original Sutra AuthorShubhshil Gani
AuthorNiranjanvijay
PublisherNemi Amrut Khanti Niranjan Granthmala
Publication Year
Total Pages516
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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