________________ 203 मुनि निरंजनविजयसंयोजित कि 'हे नरोत्तम ! आओ और इस समय मुझ को इस बेडी में से निकाल दो' इस प्रकार बार बार बोलता हुआ वह बुद्धिमान् भट्टमात्र अपने मन में विचार कर अत्यन्त लजित हुआ। भट्टमात्र सोचने लगा कि 'छली दुरात्माने छल कर मुझ को इस में डाल दिया और स्वयं यहाँ से निकल गया। अब मैं प्रातःकाल में अपना मुख लोकों को कैसे दिखाऊगा ? ' इस प्रकार बार बार सोचता हुआ उदासीनता से खिन्न अपने मुख को वस्त्र से आच्छादित कर अत्यन्त दुःखीत हृदय से वहीं पर स्थित रहा। वस्त्रादि चिह्नों से भट्टमात्र-को पहचान, कर लोग बोल ने लगे कि ' इस समय इस को अपने ही कर्तव्य का यह फल मिला है , क्यों कि जो कर्म किया हुआ है उसका नाश कोटी कल्प बीत जाने पर भी नहीं होता। जो कुछ-सुकर्म अथवा दुष्कर्म किया जाता है, उसका फल अवश्य भोगना पड़ता है।' . प्रायः सब लोग यही बोलते है कि राजा के जो प्रधान तथा सचिव लोग होते हैं, उनको किसी भी स्थान में किसी मी समय में शुभ नहीं होता। जो राजा का हित साधन करता है वह लोक में प्रजा के द्वेष को प्राप्त करता है / तथा जो प्रजा हित साधन करता है उसका राजा लोग त्याग करते हैं / इस प्रकार यह एक बहुत बड़ा विवाद है / ऐसी स्थिति में राजा और प्रजा दोनों का हित साधन करने वाला कार्यकर्ता संसार में दुर्लभ ही है। इस प्रकार बोलते हुए लोगों के मुख से भट्टमात्र की यह Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org