________________ मुनि निरंजनविजयसंयोजित 201 से नहीं निकाल सकता।' तब मैंने चोर से कहा कि-'जब तक तुम्हारा हाथ इस रोग से अच्छा नहीं हो तब तक तुम मुझको रोज भोजन दे दिया करो / तब से वह रात्रि में आकर मुझ को भोजन दे जाता है। दिन होने पर वह अपने स्थान में गुप्त होकर निवास करता है। उस चोर ने मुझको अपना स्थान नहीं दिखाया है। वह नगर के अन्दर कभी दृश्य शरीर होकर तथा कभी अदृश्य शरीर होकर निवास करता है। वह बड़े बड़े सेट तथा राजा के घरों में ही पूर्ण चोरी करता है। वह चोर अभी आयेगा। इसलिये तुम एकान्त में गुप्त होकर चुप चाप बैठ कर उसकी प्रतीक्षा करो।" बेड़ी में स्थित पुरुष की यह बात सुन कर अमात्य भट्टमात्र अत्यन्त हर्ष से एकान्त में चुप चाप गुप्त होकर बैठ गया। बहुत देर तक बैठ रहने पर भी जब चोर नहीं आया, तब भट्टमात्र ने बेड़ी में स्थित पुरुष से कहा कि 'तुम्हारा मित्र अभी तक क्यों नहीं आया ? ' भट्टमात्र को बेडी में फँसाना बेड़ी में स्थित पुरुष बोला कि 'चोर तुमको जान गया है, इसलिये वह तुमको देख कर बार बार पीछे लौट जाता है। उसको बहुत प्रपञ्च कर के बड़े कष्ट से पकड़ सकोगे। अतः तुम इस बेड़ी में अपना पाँव फंसाकर स्थित होजाओ। मैं दूर चला जाता हूँ। यदि तुम को कोई मनुष्य आकर कुछ भोजन दे, तो तुम खूब दृढ़ता से उसका हाथ पकड़ लेना, जिससे वह चोर कहीं भाग न सके / Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org