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________________ विक्रम चरित्र जिस मनुष्य को धन की व्यग्रता रहती है, उसको कोई मित्रबन्धु नहीं होता। वह हर किसी से किसी तरह से धन ही लेना चाहता है। काम से जिस का चित्त व्याकुल है, उसको भय या लज्जा नहीं होती। वह कहीं भी अपनी काम वासना को ही तृप्त करना चाहता है। भूख से जो व्याकुल है, उसका शरीर कृश हो जाता है तथा तेज नहीं रहता। इसी प्रकार जो अत्यन्त चिन्तित है उसको कहीं भी सुख नहीं मिलता तथा निद्रा भी नहीं आती। अतः देवकुमार को भी चिन्ता से कहीं शान्ति नहीं मिलती थी। इस प्रकार देवकुमार को अत्यन्त उदासीन देखकर सुकोमला बोली कि 'इस समय इस चिन्ता को छोड़ कर भोजन करो। देखो किसी कवि ने हाथी को बन्धन में पड़े हुए देख कर कहा है कि- हे गजराज! योगी के समान दोनों नेत्रों को बन्द करके क्यों इतनी चिन्ता करते हो? पिण्ड को ग्रहण करो और जल पी लो। क्योंकि दैवयोग से ही किसी को विपत्ति या सम्पत्ति प्राप्त होती है। इसलिये तू भी चिन्ता छोड़ तथा भोजन कर / ' इतने में देवकुमार बाजु में दृष्टी फेंकता हुआ, कमरे कि उपर की छतमें देखता है तो उस की नजर द्वार के भारवट्ट पर पड़ी। वहाँ कुछ लिखा हुआ देखा और खड़ा हो कर उसे पढ़ने लगा / उस में लिखा था कि-- "कमल समूह में क्रीडा करने में तत्पर राजा ने पुरुष के देखने पर उससे द्वेष करने वाली और द्वेष से काष्ट भक्षण की इच्छा वाली राजकुमारी के साथ विवाह कर मैं एक वीर इस समय पृथ्वी Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004265
Book TitleMaharaj Vikram
Original Sutra AuthorShubhshil Gani
AuthorNiranjanvijay
PublisherNemi Amrut Khanti Niranjan Granthmala
Publication Year
Total Pages516
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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